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जैन आगम : एक परिचय ... 13
प्रथम वर्गीकरण
जैनागमों का प्रथम वर्गीकरण समवायांगसूत्र में प्राप्त होता है। 52 यहाँ आगम को दो भागों में विभक्त किया है - पूर्व और अंग । इसमें पूर्वों की संख्या चौदह और अंगों की संख्या बारह बतलाई गई है।
पूर्व - नन्दीचूर्णि के अनुसार तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्त्तन के समय गणधरों के समक्ष सर्वप्रथम पूर्वों का विश्लेषण करते हैं तथा ये पूर्व समस्त सूत्रों के आधार भूत हैं अतः पूर्व कहलाते हैं। 53 स्थानांग टीका के अभिमत से द्वादशांगी के पहले पूर्व साहित्य संकलित किया गया, इस कारण इनका नाम पूर्व पड़ा। 54 परन्तु यह मत रचना की दृष्टि से समझना चाहिए, स्थापना की दृष्टि से नहीं। स्थापना की दृष्टि से आचारांग का स्थान पहला है। विद्वानों की मान्यता है कि प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के आगम ‘पूर्व' नाम से जाने जाते हैं तथा भगवान महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण इन्हें 'पूर्व' कहना उचित भी है। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा के आगम 'पूर्व' है और भगवान महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम ‘अंग’ है। यहाँ विद्वानों के मत के प्रतिपक्ष में पूज्य आगमविज्ञ रत्नयशविजयजी म.सा. का कहना यह है कि हर तीर्थंकरों के शासन में सर्वप्रथम आवश्यक सूत्र की रचना होती है क्योंकि शासन स्थापना के दिन दैवसिक प्रतिक्रमण करना होता है। दिन की सज्झाय आदि विधि भी जरूरी होती है। साध्वाचार पहले दिन से ही प्रारम्भ हो जाता है अतः उसके सूत्र भी जरूरी होने से गणधर भगवंत सर्वप्रथम आवश्यक रचते हैं। तत्पश्चात पूर्वों की रचना होती है। उसके बाद आचारांग आदि अंग आगम रचे जाते हैं।
अंगों के क्रम में आचारांग सूत्र प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में प्रथम होता है । रचना के क्रम में आवश्यकसूत्र एवं तत्पश्चात पूर्वगत श्रुत होता है। इस प्रकार केबल प्रभु पार्श्वनाथ भगवान के आगम 'पूर्व' कहलाते थे यह मान्यता तथ्यहीन है। वर्तमान में पूर्व साहित्य को बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत ही समाहित कर लिया गया है। दृष्टिवाद का एक विभाग पूर्वगत है और इसी पूर्वगत विभाग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। नन्दीसूत्र में दृष्टिवाद को पाँच भागों में विभक्त किया है- 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वानुयोग 4. पूर्व और 5. चूलिका | 55 यहाँ 'पूर्व' नामक चतुर्थ विभाग में चौदह पूर्व का ज्ञान समाविष्ट है । इस दृष्टि से जो द्वादशांगी के ज्ञाता हैं वे पूर्वों के भी ज्ञाता होते हैं। इस प्रकार अंग साहित्य की रचना के पश्चात चौदह पूर्वों और अन्य ग्रन्थों को मिलाकर दृष्टिवाद का नाम