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12... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
संरक्षित था। वीर निर्वाण की नवीं शती तक यह श्रुतसाहित्य मौखिक परम्परा के आधार पर सुरक्षित रहा। इसका कारण यह नहीं कहा जा सकता है कि पूर्वाचार्यों को लेखन परम्परा का ज्ञान नहीं था, क्योंकि लिपि का प्रादुर्भाव प्राग ऐतिहासिक काल में ही हो चुका था । प्रज्ञापनासूत्र में अठारह लिपियों का उल्लेख है। 47 भगवतीसूत्र में मंगलाचरण में 'नमो बंभीए लिविए' कहकर ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है।48 भगवान ऋषभदेव ने ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियाँ सिखलाई थी।49 अतः यह स्पष्ट है कि आगम लेखन से पूर्व ही लेखन कला एवं सामग्री का विकास हो चुका था परन्तु अपरिग्रह व्रत का खंडन, हिंसाजन्य प्रवर्त्तन, स्वाध्याय विघटन, विहारयात्रा में विक्षेप आदि कारणों से धर्मशास्त्रों को कंठाग्र रखने पर जोर दिया गया। यही परम्परा बौद्ध एवं वैदिक धर्म में भी थी। इसी कारण इन तीन परम्पराओं से सम्बद्ध प्राचीन ग्रन्थों के लिए क्रमशः श्रुतं, सुत्वं एवं श्रुति शब्द प्रयुक्त हुआ है।
द्वितीय माथुरी वाचना के पूर्व आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वारसूत्र की रचना की। उसमें द्रव्यश्रुत के लिए 'पत्तय पोत्थयलिहिय' शब्द का प्रयोग हुआ है | 50 इससे सिद्ध होता है कि आर्यरक्षित के पूर्व लिखने की परम्परा तो थी, किन्तु जैनागम लिखे गये हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि भगवान महावीर निर्वाण की 10वीं शती के अन्त में आगम लेखन की परम्परा का विकास हुआ। इस सम्बन्ध में एक प्रमाण यह भी है कि आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट उल्लेख देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के काल से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार आगम लेखन युग का प्रारम्भ ईसा की 5वीं शताब्दी मान सकते हैं। उपर्युक्त विवरण से इस बात का भी निश्चय हो जाता है कि उत्सर्गतः मुनियों के लिए लेखन कार्य का निषेध किया गया है फिर भी आगम ग्रन्थों का विच्छेद न हो जाये, एतदर्थ आगम लिखे गये | 51 दूसरे देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के पूर्व आगम वाचनाएँ तो हुई, किन्तु आगम लेखन उनके ही समय प्रारम्भ हुआ। आगमों का वर्गीकरण
जैन वाङ्मय में आगम साहित्य को अनेक भागों में वर्गीकृत किया जाता रहा है। प्रमुख रूप से 1. पूर्व और अंग 2. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, कालिक और उत्कालिक 3. अनुयोग और 4. अंग, उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक एवं चूलिका - ऐसे चार प्रकार का विभाजन उपलब्ध होता है ।