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8... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
प्रथम वाचना- आवश्यकचूर्णि के उल्लेखानुसार वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी के समय (लगभग 160 वर्ष पश्चात) पाटलीपुत्र में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा। समस्त श्रमणसंघ छिन्न-भिन्न हो गया। दुर्भिक्ष के कारण अनेक श्रुतधर मुनि काल-कवलित हो गए। सुभिक्ष होने पर पुनः श्रमणसंघ पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ और आचार्य स्थूलिभद्र के नेतृत्व में ग्यारह अंग संकलित किए गए। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद को जानने वाला कोई मुनि वहाँ नहीं था। उस समय इस ग्रन्थ के एक मात्र ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु स्वामी महाप्राण ध्यान की साधनार्थ नेपाल देश की पहाड़ियों में ध्यानस्थ थे। संघ ने परामर्श कर एक संघाटक (दो मुनि) वहाँ भेजा गया तथा पाटलिपुत्र पधारकर दृष्टिवाद की वाचना देने हेतु निवेदन किया गया। आचार्य भद्रबाहू ने कहा- इतना समय दुष्काल होने से महाप्राण की साधना अभी प्रारम्भ की है, अत: वाचनार्थ आने में असमर्थ हूँ। मुनियों ने लौटकर सारा वृत्त संघ को सुनाया। पुन: एक संघाटक भेजा गया और कहलवाया कि वाचना न देने पर प्रायश्चित्त लेना होगा। तब भद्रबाहु ने कुछ मेधावी साधुओं को भेजने के साथ-साथ प्रतिदिन सात वाचनाएँ देने का संदेश भिजवाया। संघ ने संघाटक से यह संवाद ज्ञातकर स्थूलिभद्र आदि पाँच सौ मेधावी मुनियों को वहाँ भेजा। वाचना-क्रम धीमी गति से प्रारम्भ हुआ प्रथम एक भिक्षाचर्या से आने के बाद, द्वितीय स्वाध्याय के समय, तृतीय शौच से आने के बाद, चतर्थ विकाल वेला में एवं अन्तिम (5-7) तीन वाचनाएँ प्रतिक्रमण के बाद रात्रि में देते थे। प्राय: सभी मुनि न पढ़ सकने के कारण एक, दो या तीन महीनों में पाटलीपुत्र लौट गए, केवल स्थूलिभद्र निष्ठा से अध्ययन में संलग्न रहे
और दस पूर्व तक अर्थ सहित वाचना ग्रहण की। तदनन्तर साधनाकाल पूर्ण हो जाने से अधिक समय तक वाचना देने का अवसर आया तभी यक्षा आदि साध्वियाँ भ्राता स्थूलिभद्र के दर्शनार्थ आयी, तब स्थूलिभद्र ने सिंह का रूप धारण कर उन्हें चमत्कार दिखलाया। जब भद्रबाहु इस घटना से अवगत हुए तो उन्होंने स्थूलिभद्र को वाचना देने से इन्कार कर दिया। मुनि स्थूलिभद्र द्वारा क्षमा माँगने एवं अनुनय-विनय करने पर शेष चार पूर्वो की वाचना केवल मूल पाठ के रूप में प्रदान की।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आचार्य भद्रबाहस्वामी द्वारा भले ही पूर्वो की वाचना नेपाल देश में दी गई हो, किन्तु श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रथम प्रयास तो पाटलीपुत्र में ही किया गया और वहाँ ग्यारह अंग भी संकलित