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जैन आगम : एक परिचय ...7 इस आगम विच्छेद के बारे में दो मान्यताएँ प्रचलित हैं। प्रथम के अनुसार श्रुत स्वयं नष्ट होने लगे एवं दूसरे के अनुसार श्रुतधारकों का अभाव होने लगा।31 धवला एवं जय धवला के मत से श्रुतधारक का अभाव हुआ है, श्रुत का नहीं, किन्तु दिगम्बर परम्परा श्रुत का ही विच्छेद मानती है।32
श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी थे, श्वेताम्बर मान्यतानुसार इनका स्वर्गवास वीर निर्वाण के 170 वर्ष बाद एवं दिगम्बर मान्यतानुसार वीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद हुआ, माना गया है। इन्हीं के स्वर्गवास के साथ चतुर्दशपूर्वधर (श्रुतकेवली) का लोप हो गया और
आगम विच्छेद का क्रम आरम्भ हुआ। वीर निर्वाण सम्वत् 216 में स्थूलिभद्र मुनि स्वर्गस्थ हुए, जो साढ़े नौ या पौने दस पूर्व के पूर्ण एवं अन्तिम सवा या साढ़े चार पूर्व के शाब्दिक ज्ञाता थे, इनके साथ अन्तिम साढ़े चार पूर्व भी नष्ट हो गए। इसके पश्चात आर्य वज्रस्वामी तक दस पूर्वो की परम्परा चली। ये वीर निर्वाण संवत् 551 (वि. सं. 81) में स्वर्ग सिधारे, उस समय दसवाँ पूर्व जो
आंशिक रूप से बचा हुआ था वह भी नष्ट हो गया। उसके बाद दुर्बलिका पुष्यमित्र नौ पूर्वो के ज्ञाता थे, उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण सम्वत् 604 (वि.सं. 134) में हुआ। उनके साथ नौवां पूर्व भी विच्छिन्न हो गया। इस प्रकार देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण (वीर निर्वाण संवत् 800 से 900 के मध्य) तक पूर्वां का विच्छेद क्रम चलता रहा।33 पं. दलसुखजी मालवणिया के अभिप्राय से आर्य वज्रस्वामी का स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत् 584 वर्ष के बाद हुआ और उनके साथ ही दस पूर्वो का विच्छेद हो गया।34 यद्यपि कुछ लोगों द्वारा यह माना जाता है कि देवर्द्धिगणि स्वयं एक पूर्व से कुछ अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। दिगम्बर मान्यतानुसार अन्तिम दस पूर्वी धरसेन हुए हैं और उनकी मृत्यु वीर निर्वाण 345 में हुई। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा में चतुर्दशपूर्वी (श्रुतकेवली) एवं दशपूर्वी का विच्छेद क्रम श्वेताम्बर परम्परा से क्रमश: 8 वर्ष और 239 वर्ष पहले ही स्वीकार किया गया है।35 आगम वाचनाएँ कब और कहाँ?
भगवान महावीर के कल्याणकारी उपदेशों को सुरक्षित रखा जा सके, एतदर्थ उनके निर्वाण के पश्चात आगम संकलना के उद्देश्य से प्रमुखत: पाँच वाचनाएँ हुई। उनका संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है