________________
6... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
तीर्थंकरों ने पुस्तक रूप उपकरण रखने की अनुज्ञा नहीं दी है। पुस्तकें समीप में रहने से स्वाध्याय में प्रमाद होता है। बृहत्कल्पभाष्य के
अनुसार साधु जितनी बार पुस्तकों को बाँधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं उन्हें उतने ही चतुर्लघुकों का प्रायश्चित्त आता है और आज्ञा विराधना आदि दोष लगते हैं।29
परमार्थतः श्रुतलेखन निषिद्ध है। वह आपवादिक रूप से ही विधेय है। श्रुतनाश, धृति बल, संघयण हास एवं शासन को अविच्छिन्न रखने के कारण ताड़पत्र, पुस्तक लेखन आदि की प्रवृत्ति विहित की है। ऐसे किसी कारण के उपस्थित होने पर इसमें हानि की अपेक्षा लाभ अधिक बताया गया है।
आचार्य 'गणिपिटक' के स्वामी होते हैं। श्रुतसम्पत्ति आचार्यों के अधीन होती है। गच्छ एवं संघ के हितार्थ आचार्य-गच्छाधिपति श्रुत भंडार अपने स्वाधीन रखते हैं जिससे सामान्य मुनि वर्ग श्रुत-समृद्धि का दुरुपयोग नहीं कर सकें। दूसरा योग्य शिष्य को ही श्रुत देने का विधान है, अयोग्य को कतई नहीं। श्रुतदान की मौखिक परम्परा का एक रहस्य यह भी है।
इस प्रकार उक्त कई कारणों से सिद्ध होता है कि पूर्वकाल में लेखन कला का सम्यक ज्ञान होने पर भी जैन मुनियों ने धर्मग्रन्थों को लिपिबद्ध नहीं किया। जब परिस्थिति विशेष में लेखन परम्परा का प्रवर्तन किया गया तो उसमें प्राचीन मर्यादा एवं श्रुतलेखन की वर्तमान (पाश्चात्य) परम्परा का समन्वय होना जरूरी था। आगमों का विच्छेद क्रम । ___ आधुनिक शोधकर्ताओं के अनुसार भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात श्रमणों के क्रिया कलापों एवं आचार-विचारों में निष्क्रियता आने लगी। लगभग वीर निर्वाण के 600 वर्ष पश्चात जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर ऐसे दो सम्प्रदायों में विभाजित हुआ तथा अचेलक एवं सचेलक परम्पराओं का सूत्रपात हुआ। श्रमण वर्ग अपरिग्रह को छोड़कर परिग्रह धारण करने लगे इससे स्वाध्याय वृत्ति में मन्दता आने लगी। साथ ही प्रकृति के प्रकोप (दुष्कालअनावृष्टि आदि) के कारण भी आगम पाठों का यथावत स्वाध्याय करना कठिनतर होता गया। इस प्रकार आगम विच्छेद का क्रम शुरू हुआ।30