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जैन आगम : एक परिचय ...5
1. परिग्रह की सम्भावना- जैन मुनि मन, वचन, काया द्वारा हिंसा न करने, हिंसा न करवाने एवं हिंसा की अनुमोदना न करने की प्रतिज्ञा का यावज्जीवन पालन करते हैं। आचारांग आदि ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है कि साधु को उस तरह की वस्तु का निर्माण करने, करवाने या स्वीकारने का सर्वथा निषेध किया गया है जिसमें हिंसा की सम्भावना हो। जबकि शास्त्र का लेखन करना या करवाना प्रत्यक्षत: हिंसा जन्य है तथा इससे परिग्रह की वृद्धि भी होती है।
2. अहिंसा का पालन- जैन साधुओं द्वारा पुस्तक आदि का संचय किया जाये तो अहिंसा एवं अपरिग्रह दोनों व्रतों के खंडित होने की पूर्ण शक्यता रहती है। शनैः शनैः सभी व्रतों के दूषित होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। अतएव लेखन की उपेक्षा की गई। बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार पुस्तक रखने वाले मुनि को प्रायश्चित्त आता है।
3. आन्तरिक तप- धर्मपाठों को मुखाग्र कर उनका बार-बार पुनरावर्तन करना, अनुप्रेक्षा करना, धर्मकथा करना स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय आभ्यन्तर तप का मुख्य प्रकार है। पुस्तक का आलम्बन प्राप्त होने से मन, वचन, काया की एकाग्रता खंडित होने लगती है, जबकि कंठाग्र पाठों का स्मरण करने से स्थैर्य गुण की वृद्धि होती है और उससे विपुल निर्जरा भी होती है अत: लेखन प्रवृत्ति को उचित नहीं माना गया।
जिनवाणी को लिपिबद्ध न करने के सम्बन्ध में निम्न कारण भी बताये गये हैं28• ताड़पत्रों पर कुरेदकर अक्षर आदि लिखने से कुन्थु आदि त्रस जीवों की
हिंसा होती है, इस तरह पुस्तक लेखन संयम विराधना का कारण है। • पुस्तकों का संचय करने पर उन्हें एक गाँव से दूसरे गाँव ले जाते समय
कन्धे छिल जाते हैं, व्रण हो जाते हैं। • उनके छिद्रों की सम्यक प्रकार से प्रतिलेखना करना असम्भव होता है। • विहार-यात्रा में वजन बढ़ने से शारीरिक थकावट आती है, जिससे संयमी
जीवन की नियमित चर्याओं में भी विक्षेप होता है। • कुन्थु आदि त्रस जीवों का आश्रय होने से अथवा चोर आदि के चुराये
जाने पर पुस्तक आदि हिंसा के साधन हो जाते हैं।