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4... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
आगमों की मौखिक परम्परा का इतिहास एवं अवधारणाएँ
लगभग 2500 वर्ष पहले से ही यह परम्परा अस्तित्व में रही है कि जिज्ञासुजन अपने धर्मग्रन्थों को अत्यन्त विनय एवं आदर पूर्वक गुरुजनों से श्रवण कर उन्हें कण्ठाग्र करते तथा उन पाठों को पुनरावर्त्तन - पृच्छना आदि स्वाध्याय के माध्यम से स्मृतिगत रखते थे । धर्मग्रन्थों की भाषा का उच्चारण शुद्ध हो, कहीं मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग आदि का निरर्थक प्रवेश न हो जाये और उनका लोप न हो जाये, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था।
डॉ. सुभाषचन्द जैन ने लिखा है कि जैन परम्परा में सूत्रों की पद संख्या, अक्षर संख्या, संपदा आदि का विशिष्ट विधान था। सूत्रों का उच्चारण किस प्रकार किया जाये एवं उच्चारण करते समय किन - किन दोषों से बचना चाहिए, इस विषय में भी पूर्ण जानकारी रखी जाती थी। इस प्रकार विशुद्ध रीति से संचित श्रुतसाहित्य को गुरु अपने शिष्यों को सौंपते और शिष्य पुनः उस ज्ञान को अपने प्रशिष्यों को सौंपते थें, इस तरह धर्मशास्त्र ( आगम शास्त्र ) स्मृति द्वारा ही सुरक्षित रखे जाते थे। वर्तमान में जो साहित्य उपलब्ध है उनमें श्रुत, स्मृति आदि शब्दों का उल्लेख इस बात का प्रमाण है। जैसे ब्राह्मण परम्परा में पूर्व कालिक शास्त्रों को श्रुति तथा परवर्ती शास्त्रों को स्मृति कहा जाता है, वैसे ही श्रमणपरम्परा में मुख्य प्राचीन शास्त्रों को 'श्रुत' कहा जाता है। आचारांग के 'सुयं मे शब्द से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि ये शास्त्र सुने हुए हैं और सुनते-सुनते कालक्रम से चले आए हैं। 26 प्राचीन काल में मौखिक परम्परा जीवंत रही है और आज भी अनेक जैन साधु-साध्वियों को कई आगम ग्रन्थ कण्ठस्थ है। मौखिक परम्परा के प्रयोजन
प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने लिखा है कि हमारे पूर्वजों को प्राचीनकाल से ही ताड़पत्र, कागज, स्याही, लेखनी आदि का परिचय एवं उनकी प्रयोग विधि ज्ञात थी तथा उनमें शास्त्र लिखने का सामर्थ्य भी था, फिर भी जैन परम्परा में श्रुतसाहित्य को स्मृति पटल पर सुरक्षित रखने का मानसिक भार क्यों उठाया गया ? 27 इसके उत्तर में यही कहा जाता है कि शास्त्र लेखन की परम्परा को विकसित न करने में जैन साधकों की आचार मर्यादाएँ एवं अहिंसा मूलक अवधारणाएँ बाधक रही हैं। इस विषयक निम्न पहलू मननीय है