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परिशिष्ट... 397
जबकि वर्तमान में चार-चार कालग्रहण किए जाते हैं । परंतु एक साथ चार काल ग्रहण करने पर 400 खमासमण विधियुक्त देना मुश्किल हो जाता है ।
पाटली- यह पट्ट का रूपान्तरित मरुगुर्जर मिश्रित शब्द है। वर्तमान परम्परा में छोटे आकार के काष्ठपट्ट को पाटली कहा जाता है । पाटली का उपयोग सामान्यतया कालमंडल, काल प्रतिलेखना एवं स्वाध्याय प्रस्थापना के समय किया जाता है। इस पाटली क्रिया में मुख्यत: चार उपकरण प्रयुक्त होते हैं- 1. काष्ठ का छोटा पट्टा 2. पट्ट परिमाण मुखवस्त्रिका 3. काष्ठ की दो लघु दंडियाँ 4. पट्ट को स्थिर रखने हेतु काष्ठ का छोटा टुकड़ा । काष्ठ पट्ट को पाटली कहा जाता है।
वर्तमान में इस विधि का जो स्वरूप उपलब्ध है, वह परवर्ती कृतियों में ही प्राप्त होता है।
पाटली क्रिया करते समय उसके ऊपर मुखवस्त्रिका रखी जाती है जो भाव आचार्य के आसन का प्रतीक है। मुखवस्त्रिका के ऊपर दो दंडी रखते हैं, उनमें एक दंडी योगाचार्य स्वरूप और दूसरी दंडी काल निश्चयार्थ मानी जाती है। किन्हीं मत से एक दंडी द्वारा आत्मतन्त्र की रहस्यभरी प्रक्रिया की जाती है। किसी के अभिप्राय से उक्त उपकरण ज्ञान साधना का प्रतीक है। पूर्व काल में पाटली एवं दंडी के द्वारा काल निर्धारण की प्रथा थी। पाटली के एक किनारे पर छेद रहता था, उसमें दंडी को स्थापित कर उसकी छाया परिमाण से स्वाध्याय काल का ज्ञान करते थे। आज इस क्रिया का उद्देश्य बदलता हुआ नजर आ रहा है। वस्तुत: यह क्रिया श्रद्धागम्य है।
तपागच्छीय रामचन्द्रसूरि समुदायवर्ती आचार्य श्री कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न आगमविद पूज्य रत्नयशविजयजी म.सा. के अनुसार पाटली आचार्य भगवन्त का काष्ठासन है। उस पर स्थापित मुंहपत्ती उनका आसन है।
दो दंडियों में से एक आचार्य रूप है और दूसरी स्थापनाचार्य का प्रतिरूप है। आचार्य हरिभद्रसूरि रचित पंचवस्तुक में आचार्य एवं स्थापनाचार्य के आसन स्थापित करने की बात कही गई है। यह निर्देश विधिमार्गप्रपा में भी है। स्थापनाचार्य रूप अक्षों के नीचे पाटली होती है, वह भी सिंहासन है।
संघट्टा - संघट्टा ग्रहण से तात्पर्य वस्त्र, कंबली, पूंजणी, झोली, तिरपणी,