SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ...393 करना पाली पारणुं कहलाता है। यह चालु जोग में एकान्तर चलता रहता है। किसी भी सूत्र के योग से बाहर निकलते समय विगई विसर्जावणी के साथ पाली पारणुं करना होता है। तात्पर्य है कि जब-जब नीवि आती है तब-तब पाली पारj का आदेश लिया जाता है क्योंकि योग की परिभाषा में आयंबिल तप है और नीवि पारणा है। __ आउत्तवाणय- आउत्तवाणय मूलत:प्राकृत शब्द है। इसका संस्कृत रूपान्तरण है- आयुक्तवान् अर्थात उपयोगवान्। प्राकृत-हिन्दी कोश में आउत्तवाणय के निम्न अर्थ बतलाए गए हैं- उपयोगवाला, सावधान, संयत आदि। सतर्कता पूर्वक क्रिया करने वाला उपयोगवान कहलाता है। पूज्य रत्नयश विजयजी म.सा. के अनुसार आउत्तवाणय का रूपान्तरित दूसरा शब्द 'आयुक्तमानक' भी है, किन्तु उसका अर्थ भी विशिष्ट उपयोगशील होना ही है। सामान्यतः भगवतीसूत्र, महानिशीथसूत्र एवं आचारांगसूत्र के सत्तकिया अध्ययन- इन तीनों सूत्रों के योग में आउत्तवाणय ग्रहण किया जाता है क्योंकि इन सूत्रों के योग महत्त्वपूर्ण हैं। भगवती सूत्र के योगवाही को अनुज्ञा मिलने पर गणिपद दिया जाता है। गणि पदस्थ मुनि अन्यों को भगवतीसूत्र तक के योग करवाकर गणिपद प्रदान कर सकते हैं। महानिशीथसूत्र के योगवाही को अनुज्ञा होने पर अन्यों को दीक्षा देने, उपधान करवाने आदि अनेक अधिकार मिलते हैं। सत्तक्किया का जोग होने पर 'आचारी' का अधिकार मिलता है। इससे गोचरी, स्थंडिल भूमि या विहार (आहार-विहार-निहार) में संघाटक बनने का अधिकार मिलता है अत: इन सूत्रों में विशिष्ट विधि बतलाई गई है। आउत्तवाणय के कायोत्सर्ग में लोहा, सीसा,कांसा आदि धातुओं एवं नख, केश, अस्थि, विष्टा, रुधिर आदि अशुद्ध वस्तुओं को स्पर्श नहीं करने का उपयोग रखना होता है। आउत्तवाणय का आदेश लेने के पश्चात जब तक उसका निष्ठापन नहीं करते हैं तब तक योगवाहक को अत्यन्त अप्रमत्त चेता बनकर उपरोक्त वस्तुओं के संस्पर्श से बचते हुए सर्व क्रियाएँ सम्पन्न करनी होती हैं। इससे ज्ञानावरणीय कर्म की विशिष्ट निर्जरा होती है। पवेयणा पवेइए- जिस आगम सूत्र का योग चल रहा हो, उस सम्बन्ध
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy