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________________ 392... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण दोषों की संभावनाएँ रहती हैं। एक मुनि साथ में हो तो स्खलना के निमित्तों से बचा जा सकता है तथा योग साधना के नियमों का विधिवत पालन करने में भी सहायता मिलती है। अतएव योगवाहक को परिमित क्षेत्र से बाहर एकाकी गमन करने का निषेध है। संघाटक का शास्त्रीय अर्थ है दो मुनियों का समूह। भिक्षाचर्या आदि के लिए दो साधु एक साथ जाएं तो वे संघाटक कहे जाते हैं। योगवाही के साथ गमनागमन करने वाला मुनि संघाटक रूप होता है। कालग्राही- कालग्रहण करने वाला मुनि कालग्राही कहलाता है। स्वाध्याय काल शुद्ध रूप से प्रवर्त्तमान रहे एवं आगम पाठों को निर्विघ्न रूप से ग्रहण किया जा सके तदर्थ कालग्रहण किया जाता है। वस्तुत: कालग्रहण के समय दिशा का अवलोकन एवं शुभ उपयोग द्वारा काल की शुद्धता-अशुद्धता का ज्ञान करते हैं और उसी के अनुसार स्वाध्याय का प्रारम्भ करते हैं। यदि काल शुद्ध रूप से ग्रहण किया गया है तो ही स्वाध्याय प्रस्थापना की जाती है, अन्यथा नहीं। योगोद्वहन में कालग्राही एवं दण्डधर दोनों की मुख्य भूमिका होती है, अत: दोनों लगभग साथ-साथ ही रहते हैं अथवा निश्चित दायरे में ही उपस्थित रहते हैं। जैसे कॉर्डलेस फोन और हैंडसेट का एक सम्बन्ध होता है। यदि वे निश्चित दूरी से अलग हो जाये तो उनका कार्य बंद हो जाता है वैसे ही कालग्राही एवं दण्डधर को निर्धारित क्षेत्र में रहना आवश्यक है, अन्यथा योग क्रिया में Disturbance या विक्षेप हो सकता है। कालग्राही दीक्षा पर्याय में दंडीधर से ज्येष्ठ होना जरूरी है। दांडीधर- कालमापक दंडी को ग्रहण करने वाला, कालग्राही का सहयोग करने वाला एवं कालग्रहण आदि अनुष्ठानों के समय उत्तर साधक के रूप में योगवाहियों के प्रमुख कृत्यों को सम्पन्न करने वाला मुनि दंडधर कहलाता है। पाली पलटुं- पाली - क्रम, पलटुं - बदलना अर्थात जिस क्रम से तप चल रहा हो, उस तप क्रम में परिवर्तन करना। जैसे आयंबिल के पश्चात नीवि का क्रम आ रहा हो तो उस दिन नीवि नहीं करके आयंबिल करना ‘पाली पलटुं' कहलाता है। पाली तप- आयंबिल का क्रम जारी रखना पाली तप कहलाता है। पाली पारj- आयंबिल का क्रम तोड़कर निर्विकृति द्रव्य से पारणा
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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