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परिशिष्ट... 391
देवी । सम्यक्त्वी देवी - देवताओं का लम्बा-चौड़ा परिवार है।
नन्दीसूत्र - नन्दी - मंगल, आनन्द एवं कल्याण का वाच्यार्थ है। मंगल वाचक शब्दों या पदों का श्रवण करने मात्र से मंगल होता है अतः नन्दी सूत्र सुनाने की परम्परा है। योगोद्वहन आदि चारित्र प्रधान क्रियाएँ श्रुतज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य से की जाती हैं । नन्दी सूत्र में श्रुतज्ञान का विस्तृत वर्णन है एवं आगम सूत्रों के नाम की प्रामाणिक सूची है। अतः आगम ज्ञान की समुपलब्धि हेतु भी नन्दी सूत्र सुनने - सुनाने की परिपाटी है।
नन्दी पाठ उत्कृष्ट आदि की अपेक्षा तीन प्रकार के हैं 1. योगोद्वहन, आचार्य पदारोहण आदि के समय बृहद्नन्दी पाठ सुनाते हैं 2. उपस्थापना, उपधान प्रवेश आदि के समय मध्यम नन्दी पाठ सुनाते हैं 3. सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत या सामान्य क्रियानुष्ठानों के समय तीन नमस्कार मन्त्र रूप लघु नन्दी पाठ सुनाते हैं।
तपागच्छ परम्परानुसार उपधान प्रवेश में तीन नवकार रूप जघन्य नन्दी ही सुनाते हैं। दीक्षा में भी जघन्य नन्दी सुनाते हैं। बड़ी दीक्षा में मध्यम नन्दी सुनाते हैं।
नन्दी सूत्र सुनते समय मन-वचन काया की एकाग्रता बनी रहे एवं गृहीत पाठ आत्मस्थ हो सके, इस उद्देश्य से कनिष्ठिका अंगुलियों के ऊपर मुखवस्त्रिका को स्थिर करते हैं।
नन्दी रचना - नाण, नान्दि, नन्दी रचना, समवसरण आदि पर्यायवाची शब्द हैं। तीर्थंकर परमात्मा की उपस्थित में व्रत आदि अनुष्ठान समवसरण के समक्ष किए जाते हैं। नन्दी रचना, यह समवसरण का प्रतीकात्मक रूप है। स्थापनाचार्य को लघुनन्दी के समकक्ष माना जाता है, इसे भाव आचार्य भी कह सकते हैं। तीर्थंकर के सान्निध्य का प्रत्यक्ष बोध करने के लिए नन्दी रचना की जाती है और छत्तीस गुणधारी आचार्य की निश्रा का अहसास करने के लिए स्थापनाचार्य का आलम्बन लेते हैं।
संघाटक - योगवाही मुनि के लिए यह नियम है कि उसे भिक्षाटन, वसति शोधन, वाचना ग्रहण आदि किसी भी आवश्यक कार्य के लिए वसति से बाहर जाना हो, तो सहयोगी के रूप में एक अन्य मुनि को साथ लेकर जाएं, उपाश्रय से सौ हाथ आगे जाना हो तो अकेला न जाएं। क्योंकि अकेले जाने पर अनेक