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योग तप (आगम अध्ययन) की शास्त्रीय विधि... 331
• इस प्रकार पन्द्रह दिन एवं पन्द्रह काल के व्यतीत होने पर षष्ठम योग लगता है। षष्ठम योग में क्रमशः पाँच दिन नीवि करें, तत्पश्चात छठे दिन आयंबिल करें। इसके बाद छह दिन नीवि करें तथा सातवें दिन आयंबिल करें। इसी प्रकार पाँच दिन नीवि करें तथा छठे दिन आयंबिल करें । गोशालक शतक के उद्देश के पूर्व तक (पन्द्रहवें दिन से लेकर चौंतीसवें दिन तक) षष्ठम योग किया जाता है।
• षष्ठम योग लगने पर उसमें प्रवेश करने के लिए एवं दस विगयों में से पक्वान्न विगय का विसर्जन करने के लिए उस दिन एक नवकार मंत्र का कायोत्सर्ग करते हैं तथा कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में नमस्कार मन्त्र बोलते हैं। षष्ठम योग के बाद पक्वान्न विगय ग्रहण करना कल्पता है ।
• षष्ठ योग लगने पर सम्यक प्रकार से संस्कारित की गई छाछ निर्मित्त कड़ी आदि को उस दिन ग्रहण करना कल्पता है जबकि षष्ठ योग से पूर्व उक्त पदार्थ अकल्प्य होते हैं।
• षष्ठ योग लगने के बाद पक्वान्न विगय का ग्रहण करने पर भी दिन या तप का नाश नहीं होता है। 7
सोलहवें, सत्रहवें और अठारहवें दिन क्रमश: तीसरे-चौथे, पाँचवें-छठे, सातवें-आठवें उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा करें। इन दिनों एक-एक काल का ग्रहण करें और नीवि तप करें। इसकी क्रिया में पूर्ववत सभी क्रियाएँ चार-चार बार करें।
उन्नीसवें दिन योगवाही नौवें दसवें उद्देशक के उद्देश- समुद्देश की क्रिया करें, फिर तीसरे शतक का समुद्देश करें, फिर नौवें - दसवें उद्देशक एवं तीसरे शतक की अनुज्ञा करें। इस दिन एक काल का ग्रहण और नीवि तप करें। इसकी विधि में पूर्ववत सभी क्रियाएँ आठ-आठ बार करें। इस प्रकार तीसरा शतक सात दिन और सात काल में पूर्ण होता है । आचारदिनकर के अनुसार तृतीय शतक के योग में भी आहार- पानी की पाँच दत्तियाँ होती हैं।
बीसवें दिन योगवाही चौथे शतक के उद्देश की क्रिया करें, फिर चौथे शतक के आदि के चार एवं अन्त के चार ऐसे आठ उद्देशकों के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करें। इस दिन एक काल ग्रहण लें और नीवि तप करें। इसकी विधि में पूर्ववत सभी क्रियाएँ सात-सात बार करें।