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286... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
फिर एक खमासमण देकर कहें- इच्छा. संदि. भगवन्! पाली पालटी पारणुं करशुं। गुरु- करजो। फिर एक खमासमण पूर्वक वंदन देकर कहेंइच्छकारी भगवन् तुम्हें अम्हं श्री दशवैकालिक श्रुतस्कंधे (अथवा जो अध्ययन हो उसका नाम लेते हुए) जोगदिन पेसरावणी पाली पालटी पार| करशं? गुरु- करजो। शिष्य- इच्छं कहे।
शेष विधि पवेयणाविधि के अनुसार करें।
समीक्षा- असह्य रुग्णता अथवा कठिन परिस्थितियों के होने पर पूर्व निर्धारित तपक्रम में एक दिन के लिए परिवर्तन करना ‘पाली पालटुं' कहलाता है। यदि इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक या तुलनात्मक परिशोध किया जाए तो यहाँ जिस स्वरूप में ‘पालीपालटुं' विधि दर्शायी गयी है वह केवल विक्रम की 19वीं20वीं शती के संकलित ग्रन्थों में ही उपलब्ध है।104
यद्यपि तिलकाचार्य सामाचारी (विक्रम की 12वीं शती) में 'पाडीवारणउं करिस' आलापक का उल्लेख है। इस सामाचारी ग्रन्थ में अन्य मत का सूचन करते हुए यह भी लिखा गया है कि आयम्बिल और नीवि दोनों दिन एक खमासमण पूर्वक यह आदेश लें। इस आलापक पाठ से निश्चित होता है कि परवर्ती आचार्यों ने इसी ग्रन्थ के आधार पर पालीपालटुं विधि का प्रवर्तन किया है।
शाब्दिक दृष्टि से पाडी-पाली, वारणउं-पारगुं, करिसउं-करशुं इस तरह पूर्ण रूप से अर्थ घटन हो जाता है। इसमें अन्तर यह है कि पाडी वारणउं करिसउं- यह प्राकृत पाठ है और पाली पालटुं (पारj) करशुं- यह गुजराती पाठ है। इस वर्णन से कहा जा सकता है कि इस विधि के संकेत हमें विक्रम की 12वीं शती में मिल जाते हैं किन्तु इसका विकसित स्वरूप विक्रम की 20वीं शती में उपलब्ध होता है। असमर्थ योगवाहियों की तपसाधना में इसकी उपयोगिता स्वयं सिद्ध है।105 योगनिक्षेप (योग में से बाहर निकलने की) विधि
जिस दिन आचारांग आदि किसी भी सूत्र का योग पूर्ण हो उस दिन विधिपूर्वक उस योग में से बाहर निकलना चाहिए। खरतरगच्छ सामाचारी के अनुसार योगनिक्षेप विधि इस प्रकार है
योग समापन दिन में प्रात:काल प्रतिक्रमण करें, प्रतिलेखन करें, वसति