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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...281 प्रस्थापना नौ बार तक की जा सकती है उसके पश्चात काल का ही नाश हो जाता है। फिर उस काल में दसवीं बार स्वाध्याय प्रस्थापना करना सम्भव नहीं है। तत्पश्चात दूसरा कालग्रहण लेकर ही स्वाध्याय विधि की जा सकती है।100 स्वाध्याय हेतु काल प्रतिलेखना विधि
जैन विचारणा के अनुसार आगम सूत्रों का अध्ययन (स्वाध्याय) निर्दोष एवं प्रशस्त काल में करना चाहिए। जिस प्रकार अस्वाध्याय काल को जानने के लिए काल की प्रेक्षा की जाती है उसी प्रकार स्वाध्याय काल को जानने हेत भी कालप्रेक्षा अत्यावश्यक है। जैन परम्परा में काल शुद्धि होने पर ही स्वाध्याय का प्रारम्भ किया जा सकता है। व्यवहारभाष्य के अनुसार काल प्रतिलेखना की सामाचारी निम्न प्रकार है
दिन की चरम पौरुषी का चतर्भाग शेष रहने पर उच्चार-प्रस्रवण (मलमूत्र) सम्बन्धी तीन-तीन भूमियों की प्रतिलेखना करें। यहाँ विशेष परिस्थिति में अथवा असहाय होने पर उपाश्रय के भीतर की तीन भूमियाँ- (निकट, मध्य और दूर) प्रतिलेखित करें तथा समर्थ एवं सामान्य स्थिति होने पर उपाश्रय के बाहर भी तीन-तीन भूमियाँ- (निकट, मध्य और दूर) प्रतिलेखित करें। ये बारह शौच भूमियाँ हैं। इसी तरह असह्य-सह्य की अपेक्षा मूत्र परिष्ठापन सम्बन्धी बारह भूमियाँ भी प्रतिलेखित करें। कुल चौबीस भूमियों की प्रतिलेखना करें। उसके बाद स्वाध्याय करने योग्य निकट, मध्य और दूर ऐसी तीन भूमियों की प्रतिलेखना करें। इसके बाद सूर्यास्त हो जाता है।101
___ यदि सूर्यास्त के समय किसी तरह का व्याघात (व्यवधान या किसी तरह की हलचल आदि) न हों तो प्रतिक्रमण करें। तदनन्तर स्वाध्याय योग्य शुद्ध काल का निरीक्षण-प्रतिलेखन करें। - शुद्ध काल प्रतिलेखना की विधि निम्न है-102
• काल दो प्रकार के कहे गये हैं 1. व्याघात काल और 2. निर्व्याघात काल। यहाँ व्याघात से तात्पर्य उस स्थान से है जहाँ अनेक कार्पटिक (भिक्षुगण) रहते हैं। उन लोगों के आने-जाने के घट्टन (हलचल) से व्याघात होता है तथा धर्मकथा स्थान में उचित समय का अतिक्रमण हो जाने से काल सम्बन्धी व्याघात होता है।
काल प्रतिलेखना हेतु दो मुनियों को नियुक्त किया जाता है। यदि व्याघात की स्थिति हो तो काल प्रतिलेखक दो मुनियों के साथ उपाध्याय को भी प्रेषित