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272... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
• संघट्टाग्रहण करने के बाद एक आचार्य के साथ भिक्षाचर्या करते हुए पंचेन्द्रिय जीव की आड़ (व्यवधान) पड़ जाए तो गृहीत आहार-पानी योगवाही मुनि के लिए अशुद्ध हो जाते हैं, उस स्थिति में दुबारा संघट्टा लेकर आहार लायें तो उसके लिए उपयोगी होता है। जीत आचरणा के अनुसार यदि संघट्टाग्राही मुनि के साथ दो आचार्य अथवा गणि, पंन्यास, उपाध्याय हों तो पंचेन्द्रिय जीव का व्यवधान पड़ने पर भी भक्तपान दूषित नहीं होता है, योगवाही के उपयोग में आ सकता है।
• संघट्टा पूर्वक ग्रहण किए गए पात्र, तिरपणी आदि शरीर से अलग हो जाये, हाथ से छूट जाये, संघट्ट स्थान से बाहर गिर जायें तो उसमें निविष्ट खाद्य सामग्री योगवाही के लिए अनुपयोगी हो जाती है। यदि उसे ग्रहण कर लिया जाए तो दिन गिरता है।
• जिस सूत्रयोग में आउत्तवाणय ग्रहण किया हो, उसके योगकाल में योगवाही को अखंड धान्य, खांखरा, अखंडमेथी, पापड़ या आवाज करने वाली किसी तरह की खाद्य वस्तु का उपभोग नहीं करना चाहिए । कुछ परम्पराओं के अनुसार मंडली सम्बन्धी सात आयंबिल के सिवाय शेष सभी सूत्रों के योगकाल में अखंड धान्य, खाखरा आदि वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।
• आहार -पानी करने के पश्चात पात्र आदि को यथास्थान रखना हो तो सभी सूत्रों के योगकृत मुनि के समीप आकर निम्न विधि करें
'इच्छा. संदि. भगवन्! संघट्टे (आउत्तवाणय) पात्र, तिरपणी, वस्त्र, कंबली, आसन (जिन उपकरणों का संघट्टा छोड़ना हो, उन सभी के नाम लेते हुए) आदि रखूं ? 'रखूं' यह शब्द बोलते हुए त्यागने योग्य सभी उपकरणों को एक साथ रख दें। उसके बाद दाणोदूणी छूटाने भले ? - संघट्ट - कुसंघट्टे मिच्छामि दुक्कडं। महानिशीथ योगवाही से तिविहार के प्रत्याख्यान करें। फिर चैत्यवंदन करें।
समीक्षा - यह विधि आगमयुग से लेकर विक्रम की 17वीं शती पर्यन्त के ग्रन्थों में लगभग स्पष्ट रूप से परिलक्षित नहीं होती है। परवर्ती संकलित कृतियों में इसका स्वरूप अवश्य देखने को मिलता है । सम्भवतः जीतव्यवहार के अनुसार इस विधि का संकलन किया गया है ऐसा ज्ञात होता है। सामान्यतया खरतरगच्छ आदि सर्व परम्पराओं में इस विधि को लेकर मतैक्य है।