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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...265 विधि दी गई है।81 विधिमार्गप्रपा (14वीं शती) में इस सम्बन्ध में यह कहा गया है कि यह विधि गुरुमुख से सीखनी चाहिए, इसे लिखकर पूर्ण नहीं किया जा सकता है।82 आचारदिनकर (15वीं शती) में यह विधि कालग्रहण विधि के अन्तर्गत कही गयी है।83
श्वेताम्बर परम्परावर्ती तपागच्छ आदि सम्प्रदायों में इसे योगोद्वहन की आवश्यक विधि के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उक्त ग्रन्थों में यह विधि गुरु आम्नाय के अनुसार कही गई है। इस विधि के प्रारम्भ में 'पाटलीस्थापन' शब्द का उल्लेख परवर्ती परम्परा के आधार पर किया गया है, क्योंकि विक्रम की 16वीं शती तक के ग्रन्थों में लगभग इस तरह का सूचन नहीं है केवल परवर्ती कृतियों में यह स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि विधिमार्गप्रपा आदि में ‘दंडीधर' शब्द का उल्लेख है किन्तु पाटली, तगडी जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं है।
__ डॉ. सागरमल जैन के मन्तव्यानुसार स्वाध्याय योग्य काल का सम्यक निर्णय करने के उद्देश्य से पाटली और दंडीधर का प्रयोग पूर्वकाल से प्रचलित रहा है और आज भी कई जगह इन सामग्रियों के आधार पर सही काल का ज्ञान किया जाता है। तीसरा पक्ष यह ध्यातव्य है कि कालमंडल विधि का एक सुव्यवस्थित एवं प्रचलित स्वरूप विक्रम की 19वीं-20वीं शती की संकलित रचनाओं में ही उपलब्ध होता है। उसे जीतव्यवहार के रूप में मान्य करते हुए वही विधि यहाँ वर्णित की गई है तथा तपागच्छ आदि कुछ परम्पराओं में भी कालमंडल की यही विधि प्रवर्तित है। संघट्टा-आउत्तवाणय ग्रहण विधि
सामान्यतया कालिकसूत्रों के योगकाल में संघट्टा एवं आउत्तवाणय विधि की जाती है। निश्चित समय के लिए पात्र, झोली, डंडा, कंबली, आसन आदि ग्रहण करना और उस अवधि में गृहीत पात्र आदि को शरीर से संस्पर्शित कर रखना संघट्टा ग्रहण कहलाता है तथा संघट्टाग्रहण काल में रुधिर, नख, अस्थि, लोह आदि धातुओं का स्पर्श न करना आउत्तवाणय कहलाता है। कुछ परम्पराओं में केवल संघट्टा ग्रहण करते हैं और कुछ परम्पराओं में संघट्टा एवं आउत्तवाणय दोनों ग्रहण करते हैं।
जीतव्यवहार के अनुसार संघट्टा एवं आउत्तवाणय की ग्रहण विधि इस प्रकार है 84