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254... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
ग्रन्थ
| गुरु
| वसतिप्रवेदक | वसतिप्रत्युत्तर | कालप्रवेदक | कालप्रत्युत्तर तिलकाचार्य सामाचारी | दांडीधर
| कालग्राही गुरु सुबोधासामाचारी कालग्राही एवं| वसतिशोधक | योगवाही कालग्राही
योगवाही । मुनि विधिमार्गप्रपा | कालग्राही एवं वसतिशोधक | योगवाही | कालग्राही
योगवाही | मुनि आचारदिनकर कालग्राही ।
| कालग्राही 5. इस अनुष्ठान में खमासमण एवं आलापक पाठ पूर्वक वसति शुद्धि का
प्रवेदन करते हैं फिर पूर्ववत कालशुद्धि का प्रवेदन करते हैं। यह विधि प्रक्रिया सभी ग्रन्थों में समान हैं केवल आलापकपाठ, अधिकारी आदि
को लेकर ही क्वचित मतभेद हैं। प्रवेदन (पवेयणा) विधि
पवेयण (प्रवेदन) प्राकृत शब्द है। इसे रूढ़ि से पवेयणा कहते हैं। पवेयणा का शाब्दिक अर्थ है प्र-प्रकर्ष रूप से, वेदन-निवेदन करना, कहना, बतलाना। प्राकृत शब्द महार्णव में पवेयणा के निम्न अर्थ किये गये हैं- प्ररूपण करना, प्रतिपादन करना, ज्ञात कराना, निर्णय बताना, सूचित करना आदि।75
यहाँ प्रवेदन (पवेयणा) से तात्पर्य- करने योग्य क्रियाओं का गुरु के समक्ष प्रतिपादन करना है। वस्तुतः इस क्रिया के माध्यम से अतीत, वर्तमान और अनागत त्रैकालिक अनुष्ठानों का निवेदन किया जाता है जैसे- कालग्रहण, कालमंडल आदि क्रियाएँ पवेयणा के पूर्व सम्पन्न कर ली जाती है। स्वाध्याय प्रतिक्रमण, प्रभातकालीन प्रतिक्रमण आदि अनुष्ठान उसी समय करने योग्य होते हैं तथा पात्र आदि का ग्रहण, सजग रहना आदि विधियाँ भक्त-पान से सम्बन्धित होने के कारण भिक्षाचर्या के समय की जाती है। योगवाहियों के द्वारा आचार्य के समक्ष बार-बार उपस्थित होकर आवश्यक क्रियाओं की अनुमति प्राप्त करना असम्भव है। इस उद्देश्य से भी पवेयणा विधि की जाती है, ताकि परिमित काल सम्बन्धी अत्यावश्यक अनुष्ठानों का एक साथ निवेदन किया जा सके। इससे निश्चित होता है कि योगकालिक क्रियाएँ करने से पूर्व या पश्चात, उस सम्बन्ध में गुरु को बतलाना और अनुमति प्राप्त करना परमावश्यक है।