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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...253 विधिमार्गप्रपा,72 आचारदिनकर'3 आदि में यह विधि परिलक्षित होती है। यद्यपि इनमें यह विधि सामान्य मतभेद के साथ पाई जाती है। विक्रम की 17वीं शती के बाद एतद् विषयक कोई ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता है। निर्दिष्ट ग्रन्थों में भी विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर सर्वाधिक मान्य ग्रन्थ रहे हैं। तदर्थ इन्हीं कृतियों के अनुसार यह विधि प्रतिपादित की गई है। तपागच्छ आदि की वर्तमान परम्परा में प्रचलित विधि भी दिग्दर्शित की गई है।
यदि उक्त ग्रन्थों एवं परम्पराओं की दृष्टि से इस विधि का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो ज्ञात होता है कि 1. व्यवहारभाष्य में इसका संकेत मात्र है जबकि परवर्ती ग्रन्थों में परम्परागत
सामाचारी के अनुसार इसका सम्यक स्वरूप प्रतिपादित है तथा तपागच्छादि की परम्परा में यह विधि अपेक्षाकृत विस्तृत रूप से
प्रवर्तित है। 2. विधिमार्गप्रपादि ग्रन्थों में कालप्रवेदन के समय पाटली स्थापन का
उल्लेख नहीं है किन्तु तपागच्छ आदि से सम्बन्धित कृतियों में पाटली स्थापन का निर्देश है।74 उनमें यह अनुष्ठान किस ग्रन्थ के आधार पर स्वीकृत किया गया है? हमें प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है। 3. विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों में आलापक पाठों को लेकर भी मतभेद हैं
जैसे- तिलकाचार्य सामाचारी में 'इच्छकारइं तपसिहु वसति सुज्झइ' ऐसा पाठ है। विधिमार्गप्रपानुसार 'इच्छकारि तपसियहु वसति सूझइ' पाठ मिलता है। सुबोधासामाचारी एवं आचारदिनकर में इस पाठ का उल्लेख नहीं है। आचारदिनकर में उक्त पाठ के स्थान पर 'भगवन् वसहिं पवेएमि', 'वसही सुज्झइ'- आलापक कहे गये हैं। तपागच्छ आदि परम्पराओं में इच्छा. संदि. भगवन्! वसति पवेउं?, भगवन्! सुद्धावसहि- ये आलापक बोले जाते हैं। इस प्रकार पाठ सम्बन्धी कुछ मतभेद हैं, किन्तु इनमें आशय भेद नहीं है। 4. विधिमार्गप्रपा आदि में वसति एवं काल प्रवेदन करने एवं करवाने वाले
अधिकृत मुनियों के विषय में भी मतैक्य नहीं है। सुगम बोध हेतु तालिका दृष्टव्य है