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250... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण लेकर मध्याह्न काल के अड़तालीस मिनट पहले तक पूर्वाह्न स्वाध्याय का काल है। इसे 'गोसर्गिक काल कहा गया है। मध्याह्न के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर सूर्यास्त के अड़तालीस मिनट पहले तक अपराह्न स्वाध्याय का काल है। इसे 'प्रादोषिक' काल कहा गया है।
सूर्यास्त के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर अर्धरात्रि के अड़तालीस मिनट पहले तक पूर्वरात्रि के स्वाध्याय का काल है। इसे भी 'प्रादोषिक' काल कहा गया है। अर्धरात्रि के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर सूर्योदय से अड़तालीस मिनट पहले तक अपररात्रि के स्वाध्याय का काल है। इसे 'वैरात्रिक कहा गया है। इस प्रकार चारों संधिकालों में छयानवें मिनट (लगभग डेढ़ घण्टा) तक का काल अस्वाध्याय रूप माना गया है। शेष काल स्वाध्याय हेतु उपयुक्त है। वसति शुद्धि एवं स्वाध्याय काल प्रवेदन की विधि
प्राभातिक आदि चारों कालों में से किसी भी काल को ग्रहण कर लेने के पश्चात कालप्रवेदन विधि की जाती है। इस विधि के द्वारा गुरु भगवन्त को यह अनुज्ञापित किया जाता है कि स्वाध्याय हेतु वसति और काल दोनों शुद्ध हैं। स्वाध्याय-शुद्ध वसति और शुद्ध काल में करना चाहिए। वसति एवं काल की शुद्धि पूर्वक किया गया स्वाध्याय फलदायी होता है। इसीलिए कालग्रहण द्वारा वसति एवं काल की शुद्धि का अवलोकन एवं गुरु के समक्ष उसका निवेदन करने के पश्चात ही स्वाध्याय प्रस्थापना करते हैं। काल प्रवेदन करते समय दिशा का कोई नियम नहीं है। किसी भी दिशा की ओर मुख करके काल प्रवेदन कर सकते हैं।
खरतरगच्छ विधिमार्गप्रपा के अनुसार वसति एवं काल प्रवेदन की विधि निम्न है___ वसति प्रवेदन- सर्वप्रथम कालग्राही शुद्ध रूप से प्राभातिक कालग्रहण करें। • फिर सभी योगवाही प्रतिक्रमण करें, प्रतिलेखना करें, वसति का प्रमार्जन करें। • फिर वसति के चारों ओर सौ-सौ कदम तक की भूमि का शोधन करें। वसति शोधन के समय अस्थि-चर्मादि अशुद्ध वस्तुएँ दिख जाएं तो उन्हें अन्य स्थान में परिष्ठापित कर उस सीमा क्षेत्र को निर्दोष एवं शुद्ध बनाएँ। • फिर सभी योगवाही वाचनाचार्य के समक्ष उपस्थित होकर वसति शोधन करते समय लगे हुए दोषों के निवारणार्थ ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। उसके बाद मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें। • फिर एक खमासमण देकर कहें- इच्छकारि तपसियहु वसति