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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ... 245
समीक्षा - कालिक सूत्रों के योग कालग्रहण पूर्वक सम्पन्न किए जाते हैं। यहाँ कालग्रहण से तात्पर्य द्रव्य-क्षेत्र - काल एवं भाव की शुद्धिपूर्वक आगम पाठों का पहली बार अध्ययन ( स्वाध्याय) करना है। यदि ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो सर्वप्रथम इस विधि का उल्लेख व्यवहारभाष्य में मिलता है। यहाँ इसका मौलिक एवं संक्षिप्त स्वरूप बताया गया है । 48 इसके पश्चात यह विधि विक्रम की 12वीं - 13वीं शती के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिलकाचार्य सामाचारी । 49 प्राचीनसामाचारी, 50 सुबोधासामाचारी 1 में पढ़ने को मिलती है। इन रचनाओं में पूर्वकालीन ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए गुरु परम्परागत सामाचारी के अनुसार इस क्रियानुष्ठान का स्वरूप बतलाया गया है। इसके अनन्तर विधिमार्गप्रपा 2 आचारदिनकर आदि में कालग्रहण विधि अधिक विस्तार के साथ कही गई है। 53 वर्तमान परम्परा में कई दृष्टियों से इन दोनों ग्रन्थों का सर्वाधिक महत्त्व है । अत: यहाँ पर इन्हीं ग्रन्थों के अनुसार कालग्रहण आदि की विधियाँ कही गई हैं। विक्रम की 16वीं शती के बाद इससे सम्बन्धित कोई प्रामाणिक ग्रन्थ देखने में नही आया है । केवल समुदाय या परम्परा विशेष की अपेक्षा संकलित - संपादित कृतियाँ उपलब्ध होती हैं ।
यदि कालग्रहण विधि को लेकर तुलनात्मक शोध किया जाए तो निम्न विशेषताएँ उजागर होती हैं
1. विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर में कुछ आलापक पाठों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण विधि में समानता है।
2. तपागच्छ आदि परवर्ती परम्पराओं में इस विधि का स्वरूप विधिप्रपादि से कुछ भिन्न है। संभवत: उक्त परम्परा के आचार्यों ने तिलकाचार्य सामाचारी और सुबोधासामाचारी के आधार पर इस विधि का अपनी परम्परा में प्रवर्तन किया है।
3. तपागच्छ आदि परम्पराओं में इस विधि को खुले स्थापनाचार्य के समक्ष करने का विधान है जबकि खरतरगच्छ परम्परा के ग्रन्थों में इस तरह का कोई निर्देश नहीं है केवल स्थापनाचार्य के समक्ष क्रियाविधि करने का उल्लेख है। 54 यद्यपि सभी परम्पराओं में कालग्रहण विधि स्थापनाचार्य के समक्ष ही होती है।
4. कालग्रहण के दरम्यान कालमंडल प्रेक्षा से सम्बन्धित एक विशिष्ट प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। विधिमार्गप्रपा में इस सम्बन्ध में यह कहा गया है कि