________________
योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ... 237
कालनाश से तात्पर्य यह है कि उस काल में नया पाठ अधिगृहीत नहीं किया जा सकता है। पुनः दूसरा कालग्रहण करके स्वाध्याय विधि कर सकते हैं।
विधिमार्गप्रपा के अनुसार कालग्रहण सम्बन्धी क्रिया हेतु गमन करते हुए, काल सम्बन्धी कायोत्सर्ग करते हुए, कृतिकर्म करने के पश्चात अथवा संदिसावण और प्रवेदन सम्बन्धी आदेश लेते हुए छींक आ जाये तब भी कालनाश होता है | 40
जीत व्यवहार के अनुसार कालनाश के निम्न कारण भी माने गये हैं- 1. पाटली स्थापित करते हुए 2. खमासमण देते हुए 3. 'प्रतिग्रहण करूँ' ऐसा आदेश लेते हुए, 4. आवश्यक क्रियाओं की अनुमति लेते हुए 5. काल ग्रहण कर हुए 6. काल प्रवेदन करते हुए 7. दांडी लेते हुए 8. दांडी रखते हुए 9. काल मंडल की प्रतिलेखना करते हुए 10. गृहीतकाल की स्थापना करते हु 11. कायोत्सर्ग करते हुए 12. कायोत्सर्ग पूर्ण करते हुए 13. दशवैकालिक सूत्र की 17 गाथा बोलते हुए 14. काल का प्रतिक्रमण करते हुए 15. काल मंडल में आते-जाते हुए 16. कालमंडल करते हुए - इन स्थानों पर छींक हो जाये या रूदन स्वर सुनाई पड़ जाये तो कालग्रहण नष्ट हो जाता है। यदि चार कायोत्सर्ग के समय रूदित स्वर सुनाई दे जाये तो उतने समय रुक जाना चाहिए। यदि उस समय तक आधे अक्षर का उच्चारण भी नहीं हुआ हो तो काल भंग नहीं होता है तथा रूदित स्वर सुनना बंध हो जाये, उसके पश्चात ही अग्रिम विधि करनी चाहिए।
कालग्राही से किसी व्यक्ति या वस्तु का स्पर्श हो जाए, पाटली से कोई वस्तु छू जाये, हाथ से दांडी गिर जाए, कालग्राही - दंडधर में से किसी एक का रजोहरण और मुखवस्त्रिका गिर जाए, सूत्रपाठ न्यूनाधिक बोला जाए तो इन स्थितियों में भी काल ग्रहण का नाश होता है। 41
प्राभातिक काल नाश के कारण
गीतार्थ परम्परा के अनुसार प्राभातिक कालग्रहण अधिकतम नौ बार लिया जा सकता है। यदि नौंवी बार भी यह काल शुद्ध रूप से ग्रहण न हो, तो उसे दसवीं बार ग्रहण नहीं किया जा सकता है। विधिमार्गप्रपा में प्राभातिक कालनाश निम्न कारण निरूपित हैं
1. प्राभातिक काल को विधिपूर्वक ग्रहण करते समय 'संदिसावण' का