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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...235 • प्रभातकाल में बिल्ली के रास्ता काटने, छींक के आने आदि से कालवध की विशेष सम्भावना रहती है। अत: व्याघात होने पर उसे नौ बार तक ग्रहण करने का विधान है।38
• प्राभातिक काल का प्रतिक्रमण अपराह्न में वस्त्रादि की प्रतिलेखना, स्वाध्याय की प्रस्थापना, दो बार कालमंडल आदि की प्रतिलेखना, द्वादशावत पूर्वक दिवसचरिम प्रत्याख्यान और स्वाध्याय में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण करने के पश्चात करें।
यदि आकाश मेघ आदि से आच्छन्न हो और वर्षावास के सिवाय शेष आठ महीनों में विद्यत गर्जन आदि का भय हो तो उद्देशादि की क्रिया करने के बाद स्वाध्याय प्रस्थापना, कालमंडल क्रिया एवं स्वाध्याय का प्रतिक्रमण करके दिन के पौन प्रहर के मध्य ही इस काल को पूर्ण कर लेते हैं।
• प्रादोषिक, वैरात्रिक एवं अर्द्धरात्रिक ये तीनों काल नियमतः उद्देश आदि की क्रिया करने के बाद ही विसर्जित कर दिए जाते हैं।
• प्राभातिक प्रतिक्रमण का आशय यह है कि जब तक प्राभातिक काल सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण नहीं किया जाए तब तक उस अवधि के मध्य विद्युत गर्जना आदि हो जाए तो काल का नाश हो जाता है। अतः द्रव्यादि की शुद्धता को ध्यान में रखते हुए शुद्ध काल में प्राभातिक काल का प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। इस काल ग्रहण का समय शेष कालों की अपेक्षा अधिक है। काल नाश के कारण __पूर्वाचार्यों के मतानुसार काल भंग होने पर स्वाध्याय में अवरोध उत्पन्न होता है तथा अध्ययन हेतु ग्रहण किए गए शुद्ध काल सर्वत: नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में नया कालग्रहण लेकर स्वाध्याय प्रस्थापना करते हैं। व्यवहारभाष्य में कालनाश के निम्न कारण बतलाये गये हैं-39
• कालग्राही अथवा दंडधर के द्वारा चारों कालों को ग्रहण करते समय ईर्यापथ प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाएँ विस्मृत हो जायें, स्खलना हो जायें, सूत्रोच्चारण करते हुए अक्षर छूट जायें तो काल नष्ट हो जाता है।
• कालग्रहण करते समय इन्द्रियजन्य प्रवृत्ति अनियन्त्रित हों, दिशाएँ विपरीत हों, तारे गिर रहे हों, अकालिक वर्षा हो रही हो, तो कालवध होता है।
• योगवाही के द्वारा द्वादशावर्त्त वंदन करते हुए यदि आवर्त आदि