________________
234... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
• आषाढ़ पूर्णिमा के समय से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक गणियोग (भगवतीसूत्र) को छोड़कर शेष सभी योग पूर्ण हो जाने चाहिए, क्योंकि चातुर्मास काल के अतिरिक्त शेष आठ मास में मेघ, विद्युत आदि की संभावना होने से कालग्रहण में विघ्न होते हैं यानी विद्युत गर्जना आदि से कालग्रहण दूषित हो जाता है। भगवती · सूत्र के योग इस प्रकार के समय का ध्यान रखते हुए प्रारम्भ करना चाहिए कि वह आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा के मध्य पूर्ण हो जाए। इसमें भी चैत्र शुक्ला पंचमी से लेकर वैशाख कृष्णा प्रतिपदा तक और चातुर्मासकाल में आसोज शुक्ला पंचमी से लेकर कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा तक बारह दिन किसी भी आगम सूत्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, क्योंकि इन दिनों सभी जगह कुल देवताओं की पूजा के लिए प्राणियों का वध होने से महान अस्वाध्यायकाल रहता है।
• सामान्यतया श्रावण, भाद्रपद एवं अर्द्धआश्विन ( श्राद्धपक्ष की अमावस्या) तक अध्ययन सम्बन्धी सभी कालग्रहण पूर्ण कर लेना चाहिए। उसके पश्चात आश्विन शुक्ला पक्ष को छोड़कर आवश्यक हो तो पुनः कार्तिक मास में कालग्रहण लेना चाहिए ।
• व्याघातिक (संध्याकाल), अर्द्धरात्रिक (अर्द्धरात्रि) और वैरात्रिक (अर्द्धरात्रि के बाद)- ये तीनों काल प्राभातिक कालग्रहण के अनुसार ही लिए जाते हैं। विशेषतः जिस काल का ग्रहण किया जा रहा हो, उसका नाम उच्चारित करें। दूसरा प्रभातिक कालग्रहण प्रात: काल में वसति प्रवेदन के पश्चात प्रवेदित किया जाता है, जबकि शेष तीनों कालग्रहण तत्सम्बन्धी क्रिया करने के पश्चात प्रवेदित किये जाते हैं।
• रात्रि के प्रथम प्रहर को व्याघातिक काल, रात्रि के द्वितीय प्रहर को अर्द्धरात्रिक काल और रात्रि के तृतीय प्रहर को वैरात्रिक और रात्रि के चतुर्थ प्रहर को प्राभातिक काल कहते हैं। ये चारों काल अपने - अपने समय ग्रहण किए जाते हैं। प्राभातिकाल का ग्रहण रात्रि की दो घड़ी शेष रहने पर करते हैं। इस प्रकार चारों कालग्रहण रात्रि में ही लिये जाते हैं।
• आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार व्याघातिक एवं अर्द्धरात्रिक कालग्रहण के समय स्थापनाचार्य दक्षिण दिशा में, वैरात्रिक कालग्रहण के समय पश्चिम या दक्षिण दिशा में एवं प्राभातिक कालग्रहण के समय पश्चिम दिशा में रखें।