________________
योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...233 प्राभातिक शुद्ध आया हो और बाकी के भी शुद्ध आए हों तो शुद्ध गिने जाएंगे। यदि प्राभातिक शुद्ध आए पर बाकी के अशुद्ध आए तो केवल प्राभातिक ही शुद्धि गिना जाएगा, बाकी के अशुद्ध ही गिने जाएंगे। इस तरह कालग्रहण के आपवादिक नियम मननीय हैं।34 कालग्रहण सम्बन्धी सूचनाएँ
• अंगबाह्य कालिक एवं उत्कालिक सूत्रों के योगोद्वहन (अध्ययन काल) में कालग्रहण, स्वाध्याय प्रस्थापना, संघट्टा, आउत्तवाणय आदि क्रियाएँ अनिवार्य रूप से होती हैं।
• कालिक ग्रन्थों के उद्देशक आदि के अध्ययन में कालग्रहण से लेकर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक आदि की उद्देश-समुद्देश एवं अनुज्ञा विधि अंगप्रविष्ट शास्त्रों के समान होती है। कालिक सूत्रों के योगवहन काल में प्रवर्त्तमान सूत्रों के नाम पूर्वक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन, द्वादशावर्त्तवंदन, खमासमण एवं कायोत्सर्ग करने चाहिए।
• उत्कालिक आगमसूत्रों के योगवहन में पूर्वविधि के अनुसार ही उद्देश आदि पाठ पढ़ने चाहिए।
• जो योगवाही संध्याकाल में अथवा अर्द्धरात्रि में कालग्रहण करते हैं उनके लिए संघट्टा विधि और प्रत्याख्यान विधि नहीं होती है।35
• विधिमार्गप्रपा के अनुसार अंगसूत्र (आचारांग आदि ग्यारह अंग) एवं श्रुतस्कन्ध के उद्देश और अनुज्ञा में नन्दी होती है।36
• अंगसूत्र और श्रुतस्कन्ध के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के दिन आयंबिल करना चाहिए। अन्य छेद आदि एवं प्रकीर्णक आदि सत्रों के अध्ययनवर्गादि के उद्देश-समुद्देशादि दिनों में नीवि तप किया जाता है। यह नियम भगवतीसूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र और महानिशीथसूत्र- इन तीन सूत्रों को छोड़कर शेष सूत्रों के योगकाल में जानना चाहिए।
• कतिपय आचार्यों एवं सामाचारियों के अनुसार एक नीवि, एक आयंबिल फिर एक नीवि, एक आयंबिल- इस क्रमपूर्वक तप करते हैं। आचार्य वर्धमानसूरि ने योग तप का यही क्रम दिखलाया है।
• आचार दिनकर के अनुसार योगवहन काल में क्रमश: छह महीने तक प्रतिदिन कालग्रहण लिये जाते हैं। इसके पश्चात अन्य सूत्रों के योग में कालग्रहण की आवश्यकता नहीं रहती है।37