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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ... 231
अर्द्धरात्रिक काल एक बार में शुद्ध रूप से ग्रहण न हो तो दो-तीन बार ग्रहण किया जा सकता है। इसके उपरान्त भी शुद्ध रूप से ग्रहण न हो तो वह दूषित हो जाता है । वैरात्रिक काल चार- - पाँच बार ग्रहण किया जा सकता है तथा प्राभातिक काल नौ बार तक ग्रहण किया जा सकता है | 32
आचार्य जिनप्रभसूरि ने प्राभातिक काल नौ बार ग्रहण करने के पीछे यह हेतु दिया है कि इस काल के अशुद्ध होने पर योगवाही मुनि द्वारा इससे पूर्व की रात्रि में जितने काल ग्रहण किए गए हैं वे सभी नष्ट हो जाते हैं यानी गणना में नहीं रहते तथा जितने काल नष्ट हो जाते हैं योगोद्वहन में उतने दिन गिर जाते हैं। सामान्यतया भगवतीसूत्र को छोड़कर शेष सूत्रों के योग में जितने दिन लगते हैं, उतने ही कालग्रहण होते हैं। योग दिनों में प्रतिदिन दो-तीन या चार कालग्रहण लेकर निर्धारित संख्या को निश्चित दिनों से पहले भी पूर्ण भी कर सकते हैं किन्तु दिन की गणना क्रमशः ही होगी। कालचतुष्क सम्बन्धी स्वाध्याय नियम
विशिष्ट पद्धति पूर्वक आगम शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए चार काल ग्रहण किए जाते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि अर्द्धरात्रि की विकाल वेला में कौनसा स्वाध्याय किया जा सकता है ? जैनाचार्यों ने इसका समाधान देते हुए कहा है कि प्रादोषिक काल में सभी साधु प्रथम पौरुषी (लगभग रात्रि के 9 बजे) तक स्वाध्याय करते हैं। रात्रि के द्वितीय प्रहर में सामान्य अध्येता साधु सो जाते हैं, किन्तु वृषभ (ज्येष्ठ) साधु जागते हैं। वे उस समय प्रज्ञापना आदि सूत्र का परावर्तन करते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर में गुरु भी प्रज्ञापना आदि का पुनरावर्तन करते हैं। चतुर्थ पौरुषी में सभी जागृत होकर कालिक श्रुत का परावर्तन करते हैं और गुरु सो जाते हैं। 33
प्रादोषिक आदि चारों कालों में उक्त रीति से स्वाध्याय का क्रम चलता रहता है। प्रथम और अन्तिम काल स्वाध्याय के रूप में प्रतिस्थापित होने से इस समय सभी साधुजन स्वाध्याय करते हैं, शेष दूसरा और तीसरा काल भयावह और असामान्य होने से गुरु एवं ज्येष्ठ साधु ही स्वाध्याय करते हैं, सभी नहीं । कालग्रहण के अपवाद
जैन व्याख्याकारों ने कालग्रहण के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा है- मुनियों को उत्कृष्ट से चारों काल ग्रहण करने चाहिए तथा जघन्य