________________
योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ ...229 यहाँ शोधक का अर्थ- दण्डधर है। दण्ड धारण करने वाला मुनि दांडीधर कहलाता है। स्वाध्यायप्रस्थापना, कालग्रहण, कालमंडल, कालप्रतिलेखना आदि क्रियाविधियों में कालग्राही एवं दण्डधर मुनि की मुख्य भूमिका होती है। क्योंकि जहाँ कालग्राही स्वाध्याय के समय का निर्धारण करता है, वहीं दण्डधर उनका सहयोगी बनकर व्याघात के कारणों का निरसन करता है। कालग्राही मुनि कालग्रहण सम्बन्धी क्रियाएँ जैसे- दिशावलोकन, कालशुद्धि प्रवेदन, कालशुद्धि पृच्छा आदि को सम्पन्न करता है। दांडीधर- कालग्रहण के अतिरिक्त अन्य क्रियानुष्ठानों को भी पूर्ण करता है जैसे- दंडीधर की स्थापना करना, दंडीधर सुरक्षित रखना, कालग्राही के निर्देशों का पालन करना, स्वाध्याय में व्याघात उत्पन्न करने वाले कारणों का निरसन करना आदि।
इस तरह व्याघातकाल उपाश्रय के भीतर ग्रहण किया जाता है और अव्याघात काल उपाश्रय के मध्य भाग अथवा बाह्य भाग में लिया जाता है। कालशद्धि की अपेक्षा शोधक की नियुक्ति वैकल्पिक है तथा व्याघात काल के समय शोधक की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है।
व्याघातिक काल ग्रहण करते समय शोधक के अनिवार्य के न होने का यह कारण माना गया है कि वह उपाश्रय के अन्तरंग भाग में लिया जाता है जहाँ छींक, कलह आदि के व्याघात न सुनाई दें और न दिखाई। यदि शोधक को स्थापित कर भी दिया जाए तो कालशुद्धि की दृष्टि से उसकी कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि आभ्यन्तर भाग में सजगता रखने पर भी कुछ सुनाई या दिखाई नहीं दे सकता है। यदि उसे मध्य या बाह्य भाग में स्थित किया जाए तो व्याघात की बहलता के कारण वह काल कभी भी शुद्ध रूप से ग्रहण नहीं किया जा सकेगा, अत: शोधक की उपस्थिति का निर्देश नहीं किया है।
. उपाश्रय के मध्यभाग में शोधक की नियुक्ति इसलिए अनिवार्य मानी गई है कि अव्याघात काल के उपरान्त भी कभी कोई छींक-कलह आदि सुनाई पड़ जाए तो शोधक द्वारा कालहत एवं काल शुद्धि का परिज्ञान किया जा सकता है तथा बाह्य शुभाशुभ स्थिति से परिचित होने के लिए एक सजग, कुशल मुनि की आवश्यकता भी अपरिहार्य है।
उपाश्रय के बाह्य भाग में शोधक की नियुक्ति का वैकल्पिक नियम शारीरिक एवं प्राकृतिक शुभाशुभ स्थिति पर आधारित है। मुख्यत: शोधक का कार्य चारों दिशाओं को शुद्ध रूप से ग्रहण करना है।