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________________ 228... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण विशेष रूप से होती है। प्राकृतिक विक्षोभ भी इस समय अधिक होते हैं जैसेइन्द्रधनुष, विद्युत गर्जन, उल्कापात आदि। शरीरजन्य छींक, खांसी आदि का प्रकोप भी सामान्यतया व्याघात का कारण होता है। सम्भवत: इसी हेत् से कहा गया है कि लोगों के आने जाने से स्वाध्याय में व्याघात होता है। इस वर्णन से यह तथ्य भी उजागर हो जाता है कि जिस काल में स्वाध्याय-वाचना आदि का समय न हो, वही व्याघात काल है। शुभ कार्य के प्रारम्भ में छींक, कोलाहल, रूदन, विद्युत गर्जन आदि अमंगलकारी माने गये हैं वैसे ही आगम पाठ की वाचना ग्रहण करना भी एक शुभ कार्य है। अमंगलकारी स्थितियाँ प्राय: संध्याकाल में होती हैं, अत: व्याघातकाल को सन्ध्याकाल भी कहा जा सकता है। विधिमार्गप्रपा में प्रादोषिक काल और व्याघातिक काल को समानार्थक बताया है। रात्रि का प्रथम प्रहर या सूर्यास्त के समय से लेकर एक प्रहर तक का रात्रिकाल प्रादोषिक नाम से कहा जाता है। जिस समय प्रादोषिक काल का प्रारम्भ होता है वह सन्ध्याकाल का उत्तरभाग या मध्यभाग हो सकता है। विधिमार्गप्रपा में यह भी उल्लिखित है कि प्रादोषिक काल में छींक, कलह आदि अनेक तरह के व्याघात होते हैं, इसलिए प्रादोषिक काल उपाश्रय में ग्रहण किया जाता है।28 इस चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याघातिक काल का सम्बन्ध सन्ध्याकाल से है और इसे प्रादोषिक काल भी कहते हैं। धर्मकथा आदि से व्याघात होने का अर्थ है- किसी गृहस्थ के लिए उस समय उपदेश, धर्मबोध आदि की प्रवृत्ति करने पर प्रतिक्रमणा आदि क्रियाओं में विलम्ब होने के रूप में व्याघात होता है। व्याघात का पहला कारण स्वाध्याय हानि है और दूसरा मुनि वसति से सम्बन्धित है। अत: व्याघात काल उपाश्रय में ही ग्रहण किया जाता है। अव्याघात काल- विधिमार्गप्रपा के मतानुसार अव्याघातिक काल मुनि वसति के मध्य में अथवा बाह्यभाग में ग्रहण किया जाता है। यदि यह काल वसति के मध्य भाग में ग्रहण किया जाए तो नियम से शोधक को, जो अनधिकृत लोगों के प्रवेश एवं कोलाहल को रोक सके नियुक्त करना चाहिए। यदि वसति के बाह्य भाग में ग्रहण किया जाए तो शोधक को नियुक्त करना आवश्यक नहीं है। उस समय स्थिति का आकलन कर शोधक को नियुक्त किया जा भी सकता है और नहीं भी।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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