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योगोद्वहन सम्बन्धी विविध विधियाँ... 215
देववंदावो!' गुरु- वंदावेमि कहें। फिर ॐ नमः पार्श्वनाथाय. चैत्यवंदन से लेकर आठ स्तुति, ओमिति नमो भगवई, स्तवन और जयवीयराय पर्यन्त देववन्दन करें।
तदनन्तर प्रतिमा हो तो उस पर परदा करवाकर खुल्ले स्थापनाचार्य के सम्मुख दो वांदणा पूर्वक द्वादशावर्त्त वन्दन करें।
फिर प्रतिमा का परदा दूर करवाकर योगवाही एक खमासमण देकर बोलें'इच्छकारि भगवन्! तुम्हे अम्हं श्री आवश्यक श्रुतस्कंध उद्देसावणी, नन्दिकरावणी, वासनिक्षेपकरावणी देववंदावणी नन्दीसूत्र संभलावणी काउस्सग्ग करावो, गुरु कहें- 'करेह ।' फिर शिष्य 'इच्छं शब्द पूर्वक एक खमासमण देकर कहें- 'श्री आवश्यक श्रुतस्कंधं उद्देसावणी (अणुजांणावणी) नंदीकरावणी नंदीसूत्र संभलावणी करेमि काउस्सग्गं पूर्वक अन्नत्थसूत्र बोलकर एक लोगस्ससूत्र (सागरवरगंभीरा तक) का कायोत्सर्ग करें, पारकर प्रकट लोगस्स कहें।
यहाँ गुरु भी 'श्री आवश्यक उद्देसावणी नंदिकरावणी वासनिक्षेप करावणी देववंदावणी नंदीसूत्र कढावणी करेमि काउस्सग्गं' अन्नत्थसूत्र कहकर पूर्ववत एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करें।
फिर योगवाही शिष्य एक खमासमण देकर कहें- 'इच्छकारि भगवन् ! पसाय करी श्री नन्दीसूत्र सम्भलावोजी' - गुरु- सांभलो । फिर गुरु स्वयं एक खमासमण देकर कहें- 'इच्छा. संदि भगवन्! नंदीसूत्र कड्डुं ?" इच्छं । फिर तीन बार क्रमशः नमस्कार मन्त्र एवं बृहतनन्दी पाठ कहें। नन्दीपाठ पूर्ण होने पर एक बार योगवाही के मस्तक पर वासचूर्ण डालें, तब शिष्य 'इच्छामो अणुसट्ठि' कहें। नन्दी पाठ सुनते समय शिष्य दोनों हाथों को अंजलि मुद्रा में बनाकर कनिष्ठिका अंगुलियों के मध्य मुखवस्त्रिका और अंगुष्ठों के मध्य रजोहरण को धारण कर अर्धावनत मुद्रा में एकाग्रचित्त होकर नंदीसूत्र सुनें ।
समीक्षा- खरतरगच्छीय विधिमार्गप्रपा एवं आचार दिनकर की सामाचारी तथा तपागच्छ आदि परम्पराओं में प्रचलित योगनन्दीविधि में परस्पर कुछ समानताएँ एवं कुछ असमानताएँ हैं। जैसे - 1. आचारदिनकर एवं तपागच्छ आदि परम्पराओं का विधिक्रम समान हैं। 2. आचारदिनकर एवं प्रचलित परम्परा में नन्दी विधि के प्रारम्भ में योगवाही शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण डालने का विधान है, किन्तु विधिमार्गप्रपा में यह उल्लेख नहीं है।