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202... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
कहे गये हैं उनमें से जिस काल में जो व्यवहार प्रवृत्त होता हो, उस समय उसी व्यवहारानुसार वर्तन करना चाहिए, अन्यथा जिनाज्ञा का भंग होता है। धन्ना मुनि आदि आगम-व्यवहार काल में हुए थे, उन मुनियों की तुलना वर्तमानकाल के साधकों से करना अयोग्य है, क्योंकि वर्तमान समय में श्रुतकेवली आदि का साक्षात अभाव होने से जीतव्यवहार ही प्रमुख है।
उक्त मत के समर्थन में गजसुकुमाल का उदाहरण भी द्रष्टव्य है। प्रभु नेमिनाथ ने जिस दिन गजसुकुमाल को दीक्षा दी, उसी दिन एकलविहारी प्रतिमा धारण करने की अनुमति भी प्रदान कर दी, परन्तु यह उदाहरण सर्वकाल में सर्वत्र लागू नहीं होता है, अतएव सर्व क्रिया को अनुक्रम से करने पर ही गुणों की अभिवृद्धि होती है। ऐसा न्याय संगत विचार कर निरर्थक युक्तियाँ देना योग्य नहीं है। यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि " गृहस्थ श्रावकों को 'सुअपरिग्गहिआ ' अर्थात श्रुत को ग्रहण करने वाले ऐसा कहा गया है इसलिए श्रावक को श्रुतका अभ्यास करना योग्य है।” तो इसके समाधान में यह समझना चाहिए कि यहाँ 'श्रुत' का अर्थ छः आवश्यक रूप सूत्र हैं। ये सूत्र भी उपधान वहन के बाद ही पढ़ना योग्य है, क्योंकि यह पाठ नन्दीसूत्र का है । उसमें 'सुअपरिग्गहिआ' इस पाठ के बाद तुरन्त 'तवोवहाणाई' यह पाठ दिया गया है। इस पर फिर शंका की जाती है कि आवश्यक सूत्र पढ़ने का निषेध क्यों नहीं किया गया ? इस विषय पर अनुयोगद्वार में कहा गया है कि श्रमणों और श्रावकों के द्वारा दिन एवं रात्रि के अन्त में अवश्य करने योग्य होने के कारण इसका नाम आवश्यक है। इस वचन से आवश्यकसूत्र निश्चित ही करने योग्य है। 107
योगोद्वहन एक गूढ़ रहस्यमयी विधान है। आगमों के सुचारू, सुगम एवं सर्वांगीण अध्ययन के लिए यह एक सफल प्रक्रिया है । इसके द्वारा मात्र ज्ञानार्जन ही नहीं होता अपितु यह सदाचरण में भी हेतुभूत बनता है। इसके माध्यम से ज्ञान के साथ विनय गुण का भी आरोपण किया जाता है। यही अर्जित ज्ञान को जीवन उपयोगी एवं सफल बनाता है। वर्णित अध्याय के माध्यम से इस आगमोक्त प्रक्रिया का यथोचित एवं यथार्थ ज्ञान हो पाएगा।