________________
योगोद्वहन : एक विमर्श ...201 होता है। चूंकि दिगम्बर परम्परा ने आगमों का विच्छेद मान लिया है अत: उसमें यह विधि प्रचलन में नहीं रही।106 ___इस प्रकार हम देखते हैं कि योगोद्वहन विधि के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। जहाँ आगम साहित्य में इसके संकेत मात्र मिलते हैं वहीं आगमिक व्याख्याओं एवं परवर्ती साहित्य में अपेक्षाकृत विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। उपसंहार
आगमसूत्रों का अधिकृत रूप से अध्ययन करने हेतु योगोद्वहन विधि की जाती है। योगोद्वहन का मूल उद्देश्य- मन, वचन एवं काया की अशुभ प्रवृत्तियों को ऊर्ध्वगामी बनाना है। सांसारिक प्राणी इन तीन योगों के कारण ही कर्मबंध करता है, जबकि प्रस्तुत अनुष्ठान के माध्यम से अशुभ योगों को शुभ कार्यों में लगाया जाता है, जिससे वे कर्मबंध का हेत न बन सके।
उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो स्वाध्याय प्रस्थापना, प्रवेदन, कायोत्सर्ग आदि शुभ क्रियाओं से मन का, मौन आदि के माध्यम से वचन का एवं नीरस आहार तथा संघट्टा ग्रहण आदि क्रियाकलापों से काया का संयम अथवा संवर किया जाता है। वस्तुतः इसविधि के माध्यम से बहिर्मुखी जीव अन्तर्मुखी होकर आगम के गढ़-गंभीर विषयों को सरलतया समझकर साधना के उच्च स्तर पर पहुँच सकता है। दूसरे, इस क्रिया के प्रयोगात्मक स्वरूप द्वारा आगमसूत्रों का न केवल सम्यक अभ्यास ही होता है अपितु श्रमण जीवन की कठोर चर्या से भी वह भलीभाँति परिचित हो जाता है। योगोद्वहन के दिनों में विशेष रूप से शुभ प्रवृत्तियाँ ही क्रियाशील रहती है अत: अनन्तगुणी कर्म निर्जरा होती है। इस प्रकार योगोद्वहन कर्ममल के शोधन का भी अनन्य हेतु बनता है।
योगोद्वहन की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहे, इस आशय से यह स्पष्टीकरण भी आवश्यक है कि कदाचित किसी को शंका हो कि “यदि सूत्रागमों का अध्ययन योग विधि पूर्वक किया जाए तो बहुत सा समय बीत जायेगा, जबकि आगमों में यह भी उल्लेख है कि धन्ना आदि अनेक मुनियों और साध्वियों ने अल्पकाल में ही ग्यारह अंगों का अभ्यास कर लिया था, इसलिए योगोद्वहन पूर्वक श्रुताभ्यास करना चाहिए, यह अनिवार्य नियम नहीं है।" जैनाचार्यों ने इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि जैन दर्शन में पाँच प्रकार के व्यवहार