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200... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण तप किस विधि पूर्वक किया जाना चाहिए, यह प्रतिपादन लगभग मूलागमों में नहीं है।
जहाँ तक आगमिक व्याख्या साहित्य का प्रश्न है वहाँ यदि योगोद्वहन के मूल स्रोत ढूँढना चाहें तो व्यवहारभाष्य में इस सम्बन्धी सम्यक वर्णन उपलब्ध होता है।98 इस भाष्य में कालग्रहण, स्वाध्याय प्रस्थापना, कालप्रतिक्रमण आदि के विधि-विधान भी उल्लिखित हैं। परमार्थतः योगोद्वहन-विधि की प्रारम्भिक चर्चा इन्हीं व्याख्या ग्रन्थों में मिलती है। इसके अतिरिक्त ओघनियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य आदि में भी प्रस्तुत विधि की सम्यक चर्चा की गई है।
यदि आगमेतर साहित्य का अवलोकन किया जाए तो विक्रम की 8वीं शती से लेकर 16वीं शती तक के ग्रन्थों में इसका उत्तरोत्तर विकसित स्वरूप परिलक्षित होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचवस्तुक में तद्विषयक विधि स्वरूप का वर्णन तो नहींवत है, किन्तु इसके महत्त्व को समग्र रूप से पुष्ट किया गया है। इसमें कहा गया है कि जो शिष्य योग (विधि) पूर्वक श्रुताभ्यास नहीं करता है उसे आज्ञाभंग, अनवस्था आदि चार दोष लगते हैं।99 इसी तरह के अन्य सूचन भी दृष्टिगत होते हैं। इसके अनन्तर तिलकाचार्यसामाचारी,100 प्राचीनसामाचारी,101 सुबोधासामाचारी,102 विधिमार्गप्रपा,103 आचारदिनकर104 आदि ग्रन्थों में भी योगोद्वहन सम्बन्धी अलभ्य सामग्री प्राप्त होती है। इनमें विषय वस्तु की दृष्टि से विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर का विशिष्ट स्थान रखते हैं। वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की लगभग सभी परम्पराओं में नोंतरा विधि, पाली पलटुं ऐसे कुछ विधियों को छोड़कर योगोद्वहन के अन्य सभी अनुष्ठान इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर किये-करवाये जाते हैं तथा इन्हीं ग्रन्थों के अनुसार आज यह विधि प्रचलित है।
जहाँ तक उत्तरवर्ती या अर्वाचीन साहित्य का सवाल है वहाँ 16वीं शती के अनन्तर इस विषय से सम्बन्धित एक भी मौलिक ग्रन्थ लिखा गया हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता है। हाँ! गुरु परम्परागत एवं सामाचारी सम्बद्ध संकलित कृतियाँ अवश्य देखने में आई हैं, जो पूर्ववर्ती ग्रन्थों के आधार पर ही निर्मित हैं।
यदि दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा से विचार करें तो अनगारधर्मामृत 05 एवं मूलाचार में स्वाध्याय प्रारम्भ एवं स्वाध्याय समापन विधि, अस्वाध्यायकाल, विनय पूर्वक श्रुत अध्ययन के लाभ, काल के प्रकार आदि का ही वर्णन प्राप्त