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198... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण 23. मूलगुण धारण- अहिंसादि मूलगुणों का सम्यक पालन करें। 24. उत्तरगुण धारण- इन्द्रिय निरोध आदि उत्तर गुणों का अनुपालन करें। 25. व्युत्सर्ग- वस्त्र-पात्र आदि बाह्य उपधि और मूर्छा आदि आभ्यन्तर उपधि
का परित्याग करें। 26. अप्रमाद- दैनिक आवश्यक क्रियाओं में सदैव अप्रमत्त रहें। 27. लवालव- सर्व प्रकार की सामाचारी के परिपालन में सजग रहें। 28. ध्यान संवर योग- धर्म और शुक्ल ध्यान की प्राप्ति के लिए आस्रव द्वारों
का संवर करें। 29. मारणान्तिक उदय- मारणान्तिक कष्ट आ पड़ने पर भी क्षोभ न करें, मन
में शान्ति रखें। 30. संग परिज्ञा-परिग्रह के दुःखद स्वरूप को भलीभाँति जानकर उसका
परिहार करें। 31. प्रायश्चित्त करण- छद्मस्थता वश लगने वाले दोषों से निवृत्त होने के
लिए तप आदि का सम्यक आचरण करें। 32. मारणान्तिक आराधना- मृत्यु काल सन्निकट जानकर संलेखना पूर्वक
रत्नत्रय की विशिष्ट आराधना करें।
इन बत्तीस योग संग्रह में से लगभग सभी नियमों का योगचर्या काल में अनुसरण किया जाता है। इस प्रकार समवायांग सूत्र के आधार पर भी योगोद्वहन की मूल्यवत्ता सुसिद्ध हो जाती है।94
अनुयोगद्वार में प्रतिपाद्य विषय का समर्थन करते हुए कहा गया है कि "ज्ञान पाँच प्रकार का कहा गया है- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवलज्ञान। इनमें से चार ज्ञान अध्ययन विषयक नहीं है। इन चार ज्ञानों के उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा नहीं होती है यानी उक्त चार ज्ञानों का अध्ययनअध्यापन नहीं किया जा सकता है, किन्तु श्रुतज्ञान के उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा एवं अनुयोग आदि होते हैं।'95 इसी प्रकार नन्दीसूत्र में भी श्रुत के उद्देश और समुद्देश के काल बतलाए गए हैं।96
इन कथनों का आशय यह है कि मति आदि चारों ज्ञान पदार्थ बोध के हेतु हैं परन्तु श्रुतज्ञान की तरह इनमें शब्द व्यवहार की प्रवृत्ति का अभाव होने से ये