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योगोद्वहन : एक विमर्श ...197 चतुर्थ आगमसूत्र समवायांग में बत्तीस योगसंग्रह का उल्लेख है, जो मनवचन-काया के प्रशस्त व्यापार रूप कहे गये हैं तथा इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारू रूप से सम्पन्न होती है। वस्तुत: योग संग्रह के कुछ तथ्य योगोद्वहन चर्या से ही सम्बन्धित हैं। योगकाल में उन संग्रह पदों का पूर्णत: पालन किया जाता है। स्पष्ट बोध के लिए शुभ योग सम्बन्धी व्यापार के बत्तीस प्रकार निम्न हैं1. आलोचना- व्रत शुद्धि के लिए गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करें। 2. निरपलाप- आचार्य शिष्य-कथित दोषों को किसी के समक्ष न कहें। 3. आपत्सु दृढ़धर्मता- आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म में दृढ़ रहें। 4. अनिश्रितोपधान- अन्य के आश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करें। 5. शिक्षा- सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करें। 6. निष्पतिकर्मता- शरीर का श्रृंगारादि न करें। 7. अज्ञातता- यश, ख्याति, पूजा आदि के लिए अपने तप को प्रकट न
करें। 8. अलोभता- भक्त-पान एवं वस्त्र, पात्र आदि में निर्लोभ वृत्ति रखें। 9. तितिक्षा- भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करें। 10. आर्जव- अपने व्यवहार को निश्छल एवं सरल रखें। 11. शुचि- सत्य और संयम पालन में शुद्धि रखें। 12. सम्यग्दृष्टि- शंका, कांक्षादि दोषों का परिवर्जन करते हुए आत्मिक
अध्यवसायों को निर्मल रखें। 13. समाधि- चित्त को संकल्प-विकल्पों से रहित शान्त रखें। 14. आचारोपगत- आचार व्यवहार को मायाचार से रहित रखें। 15. विनयोपगत- विनम्र स्वभाव में अभ्यस्त रहें। 16. धृतिमति- बुद्धि में धैर्य रखें अर्थात बुद्धि को स्थिर रखें। 17. संवेग-संसार सागर से भयभीत रहें और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखें। 18. प्रणिधि-मन, वचन और कर्म को एकाग्रचित्त और संयमित रखें। 19. सुविधि- गृहीत चारित्र का विधिपूर्वक अनुष्ठान करें। 20. संवर- कर्मास्रव के कारणों का निरोध करें। 21. आत्मदोषोपसंहार- क्रोधादि आत्मिक दोषों का वर्जन करें। 22. सर्वकाम विरक्तता- सर्व विषयों से विरक्त रहें।