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196... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण ___टीकाकार अभयदेवसूरि ने योगवाहिता के दो अर्थ किये हैं1. श्रुतोपधानकारिता अर्थात शास्त्राभ्यास के लिए आवश्यक अल्पनिद्रा लेना, अल्प भोजन करना, मित भाषण करना, विकथा-हास्य आदि का त्याग करना। 2. समाधिस्थायिता अर्थात काम-क्रोध आदि का त्याग कर चित्त में शान्ति और समाधि रखना। इस प्रकार की योगवाहिता से युक्त, निदान-रहित एवं सम्यक्त्व सम्पन्न साधु इस अनादि अनन्त संसार से पार हो जाता है। स्थानांग के तीसरे स्थान में निर्देश है कि श्रमण तीन कारणों से महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है
1. कब मैं श्रुत का अध्ययन करूंगा? 2. कब मैं एकल विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विहार करूँगा? 3. कब मैं मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर एवं पादोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर विचरूंगा?92 इस प्रकार मन, वचन, काया से उत्तम भावना करता हुआ श्रमण महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है।
स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में वर्णित है कि संसारी जीव दस कारणों से आगामी भद्रता (आगामी भव में देवत्व की प्राप्ति और तदनन्तर मनुष्य भव पाकर मुक्ति प्राप्ति) के योग्य शुभ कर्म का उपार्जन करते हैं जैसे
1. अनिदान- तप के फल से सांसारिक सुखों की कामना न करना। 2. दृष्टिसम्पन्नता- सम्यग्दर्शन की सांगोपांग आराधना करना। 3. योगवाहिता- मन-वचन-काया को समाधि में रखना। 4. क्षान्ति क्षमणता- अपराधी को क्षमा करना एवं क्षमा याचना करना। 5. जितेन्द्रियता- पाँचों इन्द्रियों के विषय को जीतना। 6. ऋजुता- मन-वचन-काया की सरलता होना। 7. अपार्श्वस्थता- चारित्र पालन में शिथिलता का अभाव। 8. सुश्रामण्य- श्रमण धर्म का यथाविधि पालन करना। 9. प्रवचन वत्सलता- जिन आगम और शासन के प्रति प्रगाढ़ अनुराग। 10. प्रवचन उद्भावना- आगम और शासन की प्रभावना करना।93
उपर्युक्त सूत्र पाठों के पर्यवेक्षण से यह सुनिश्चित हो जाता है कि तीसरे अंग आगम में योगोद्वहन की प्रामाणिकता को सिद्ध करने वाले विविध स्थान हैं तथा इसे बहु निर्जरा और भव मुक्ति का अनन्य कारण माना गया है।