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योगोद्वहन : एक विमर्श ...195 रहित आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम निर्वाण है। योगोद्वहन निर्वाण सम्प्राप्ति का पारम्परिक उपाय है। इस अनुष्ठान के माध्यम से तीर्थंकर पुरुषों एवं श्रुतधर आचार्यों द्वारा उपदिष्ट एवं गुंफित अमर वाणी को आत्मसात करने का सत्प्रयास किया जाता है। साथ ही योग की शुद्धि पूर्वक ज्ञानयज्ञ का उत्सव मनाते हुए परमानन्द की अनुभूति की जाती है।
ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। जैसे- नेत्र विहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय है उसी प्रकार ज्ञानविहीन के लिए सत्यासत्य का निर्णय कर पाना मुश्किल है। भौतिक जीवन की सफलता और आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए प्रथम सीढ़ी ज्ञान की प्राप्ति है। जीवन की उलझने, समस्याएँ, राग-द्वेष, द्वन्द-क्लेश आदि का मूल कारण सद्ज्ञान का अभाव है। बिना सद्ज्ञान के न तो जीवन सफल होता है और न ही सार्थक। जो व्यक्ति अपने जीवन में चरम ऊँचाईयों को पार करना चाहता है, उसे सम्यकज्ञान के लिए विधिवत पुरुषार्थ करना चाहिए। योगोद्वहन सम्यकज्ञान की आराधना का ही मुख्य अंग है। यदि योगोद्वहन की अवधारणा का ऐतिहासिक दृष्टि से अन्वेषण किया जाए तो ज्ञात होता है कि जैनागमों, आगमिक व्याख्याओं एवं परवर्ती ग्रन्थों में इस विषयक स्पष्ट उल्लेख हैं। इससे इस अनुष्ठान की प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है।
जहाँ तक आगम ग्रन्थों का सवाल है वहाँ आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'ग्यारह अंगों में से प्रथम अंगसूत्र में दो श्रुतस्कंध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं और पचास उद्देशकाल हैं।' यहाँ काल का आशय 'कालग्रहण' किया जा सकता है, क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र के 26वें अध्ययन में उल्लिखित है कि 'चार कालग्रहण हैं जो योग विधि में ही योग्य हैं।' पूर्व विवेचन से यह सुस्पष्ट है कि कालिकसूत्रों के योग कालग्रहण पूर्वक ही होते हैं और उद्देश आदि की वाचना के लिए ही कालग्रहण किया जाता है। इस प्रकार आचारांगसूत्र योगोद्वहन के सन्दर्भ में कालग्रहण आदि का स्पष्ट सूचन करता है।
स्थानांगसूत्र में योग विधि को पुष्ट करने वाले अनेक तत्त्व हैं। जैसे कि तीसरे स्थान में बताया गया है तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार (साधु) अनादि अनन्त चार गति रूप संसार अटवी का उल्लंघन करते हैं। 1. अनिदानता से (भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा नहीं करने से) 2. दृष्टि सम्पन्नता से (सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से) और 3. योगवाहिता से।91