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188... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण __ योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश में आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं- “विना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्माविडम्ब्यते' अर्थात ज्ञानाराधना से पल-पल वैराग्य बढ़ता है, ममत्व भाव न्यून होता है, राग-द्वेष की परिणति मन्द होती है, समत्व अभिवृद्ध होता है।
आगम अध्ययन के दिनों में आयंबिल-नीवि आदि तप करने की जो परिपाटी है, इसके पीछे कुछ कारण ये हैं
निर्विकृतिक द्रव्य का सेवन करने वाला साधु ही आगम सूत्रों के रहस्य को समझने में सक्षम होता है।
विगय सेवन से वासना, प्रमाद, निद्रा, विकथा आदि दोषों की अधिक संभावना रहती है जबकि रूक्ष द्रव्य के सेवन से अप्रमत्तता, जागरूकता, कषाय मन्दता आदि आत्मिक गुण प्रकट होते हैं, जो योगवाही के लिए अनिवार्य है। __ तपस्या के आचरण से क्रमश: तन, मन और चेतना तीनों परिशुद्ध बनते हैं।
फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि योगोद्वहन मोक्षफल का पारम्परिक हेतु है। यही इस विधि की सर्वोत्कृष्ट उपयोगिता है। आधुनिक संदर्भो में योगोद्वहन की प्रासंगिकता
वर्तमान संदर्भ में योगोद्वहन सम्बन्धी प्रचलित विधियों को लेकर यदि चिन्तन किया जाए तो अनेक तथ्य उजागर होते हैं। योगोद्वहन जैनाचार्यों की दीर्घदृष्टि एवं विधि-विधानों में अन्तर्भूत मनोवैज्ञानिक रहस्यों का श्रेष्ठ उदाहरण है। यद्यपि कुछ विधियाँ देश-काल-परिस्थिति में आए परिवर्तन के कारण वर्तमान में अप्रासंगिक प्रतीत होती है, परंतु उनके गूढ़ रहस्यों को जानने के बाद पूर्वाचार्यों के प्रति अहोभाव विकसित होता है।
___ यदि अनध्याय विधि के विविध पहलओं का अध्ययन करें तो जिन-जिन स्थितियों में मुनि को स्वाध्याय न करने का निर्देश दिया है वे वर्तमान समय में भी अत्यंत प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। जैसे कि प्रकृति में होने वाले विविध परिवर्तनों के समय में अनध्याय या अस्वाध्याय काल शास्त्रों में बताया गया है। यदि मनोवैज्ञानिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से इस विषय में चिंतन करें तो जिस तरह के वातावरण का निर्माण उस समय होता है उसमें स्वाध्याय में एकाग्रता रहना मुश्किल है। इसी के साथ अनेक प्रकार की शारीरिक समस्याएँ भी उत्पन्न हो