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________________ योगोद्वहन : एक विमर्श ...187 है।73 जो आचार्य अपने योग्य शिष्यों को यथाविहित काल में प्रकीर्णक आदि की वाचना देते हैं, आगम अभ्यास करवाते हैं, उनकी भी विपुल निर्जरा होती है।74 बृहत्कल्पभाष्य के उल्लेखानुसार शास्त्रों के अध्ययन से निम्न आठ गुण निष्पन्न होते हैं 1. आत्महित- आत्महित का सम्यक ज्ञान होता है। 2. परिज्ञा- प्रत्याख्यान परिज्ञा का विकास होता है। 3. भाव संवर- क्रोध-मान आदि कषायों का निरोध होता है। 4. नव-नव संवेग- मुनि जैसे-जैसे अपूर्व श्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे वह संवेग श्रद्धा (वैराग्यमयी मोक्षाभिलाषा) से अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। 5. निष्कम्पता- वह कर्ममल से विशुद्ध होता हुआ जीवन पर्यन्त संयम में स्थिर रहता है। ___6. तप- श्रुत अध्ययन से यह भावना पुष्ट होती है कि तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट द्वादशविध बाह्य और आभ्यन्तर तप में स्वाध्याय के तुल्य कोई तप:कर्म न है, न था और न होगा। 7. निर्जरा- अज्ञानी जीव अनेकों कोटि वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, ज्ञानी उतने कर्मों का क्षय उच्छवास मात्र में कर लेता है। 8. परदेशकत्व- श्रुत का पारगामी मुनि दूसरों को श्रुत पढ़ाता हुआ स्वयं के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है और उनको अज्ञानतम सागर से पार उतारता है। इससे तीर्थंकर आज्ञा की आराधना, शिष्यों के प्रति उसके वात्सल्य का प्रगटीकरण, प्रवचन की प्रभावना और भक्ति तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है।75 वैज्ञानिक स्तर पर धारणा शक्ति की अभिवृद्धि एवं उसके स्थायित्व के लिए देह को कृश करना आवश्यक है। कृशकायी व अप्रमत्त योगवाही सरलता से ज्ञानार्जन कर सकता है। यदि शरीर में भारीपन हो तो लंबे समय तक एक आसन में बैठना, एकाग्रचित्त होकर बैठना, विधिवत क्रिया करना मुश्किल होता हैं अत: देहासक्ति का त्याग आवश्यक है, वह योगोद्वहन के माध्यम से सहज हो जाता है। शारीरिक स्तर पर देह निरोग रहता है और देहाध्यास में न्यूनता आती है।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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