SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 186... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण काया को संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में संलग्न रखना काय समाधारणा है। काय समाधारणा से 1. चारित्र पर्यायों की विशुद्धि 2. यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति 3. तीर्थंकरों में विद्यमान चार अघाति कर्मों का क्षय 4. सिद्ध दशा की उपलब्धि और 5. समस्त दुःखों का अन्त होता है। योगोद्वहन की चरम फलश्रुति समाधारणा की उपलब्धि है। इस प्रकार यह साधना योग गुप्ति से प्रारम्भ होकर समाधारणा में पूर्ण होती है । योगोद्वहन के माध्यम से श्रमण ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पन्न बनता है यानी ज्ञानादि रत्नत्रय की समृद्धि को उपलब्ध करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि सम्यक प्रकार से श्रुतज्ञान की प्राप्ति करने वाला ज्ञान सम्पन्न कहलाता है। ज्ञान सम्पन्नता से 1. सर्व पदार्थों का ज्ञान 2. चतुर्गति रूप संसार का निरोध 3. ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों की संप्राप्ति और 4. स्वसिद्धान्त पर सिद्धान्त विषयक संशय छेदन के योग्य होता है। 71 क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाला अथवा श्रुतज्ञान के द्वारा वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करने वाला दर्शन सम्पन्न कहलाता है । दर्शन सम्पन्नता से 1. मिथ्यात्व का उच्छेद 2. सम्यक्त्व का प्रकाश 3. अनुत्तर ( श्रेष्ठतम ) केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति और 4. सम्यक प्रकार से भावित हुआ निर्विकल्प विचरण करता है। सतरह प्रकार के संयम में सुस्थित एवं मुनि धर्म के सत्ताईस गुणों को प्राप्त करने वाला साधक चारित्र सम्पन्न कहलाता है । चारित्र सम्पन्नता से तीन लाभ होते हैं 1. शैलेशी भाव की प्राप्ति 2. चार अघाति कर्मों का क्षय और 3. सिद्धबुद्ध-मुक्त दशा की संप्राप्ति होती है। योगोद्वहन संयमित व्यापार और तपश्चर्या पूर्वक वहन किया जाता है। संयम से आश्रव निरोध और तपस्या से पूर्व संचित कर्मों का क्षय होकर विशुद्ध दशा प्राप्त होती है। विशुद्धि से अक्रियता तथा अक्रियता से निर्वाण पद की प्राप्ति होती है। 72 व्यवहारभाष्य के अनुसार प्रतिक्रमण या प्रतिलेखन आदि संयम योगों में से किसी भी योग में तन्मय होने से प्रतिक्षण असंख्य भावों में अर्जित कर्म क्षीण होते हैं। विशेष रूप से स्वाध्याय योग (योगोद्वहन) कायोत्सर्ग, वैयावृत्य और अनशन में तल्लीन होने से असंख्य भवोपार्जित कर्मों की विशेष निर्जरा होती
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy