SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोद्वहन : एक विमर्श ...185 विविध दृष्टियों से योगोद्वहन की उपादेयता योगोद्वहन मूलतः स्थूल से सूक्ष्म, सक्रिय से निष्क्रिय, भेद से अभेद और योग से अयोग का प्रयोग है। इस प्रयोगात्मक साधना की संसिद्धि हेतु चित्त की एकाग्रता, विशुद्ध संयम व्यापार, ऐन्द्रिक नियंत्रण, तप:कर्म एवं योग गुप्ति आदि का होना परमावश्यक है। इन सभी में योगशुद्धि का प्राधान्य है। योगबंधन एवं निर्जरा दोनों का हेतु है। योग से ही योग की विशुद्धि होती है। मन, वचन और कायिक सत्यता से योग को विशुद्ध किया जा सकता है। योग की निरोध करने से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति होती है। सर्वप्रथम मनोगुप्ति से एकाग्रता प्राप्त होती है। एकाग्रता से निम्न लाभ होते हैं- 1. चित्तवृत्ति का निरोध 2. अशुभ विकल्प से मुक्ति 3. समभाव की पुष्टि और 4. विशुद्ध संयम की वृद्धिा67 वचनगुप्ति से साधक निर्विचार भाव को प्राप्त करता है। निर्विचार भाव से तीन लाभ होते हैं- 1. अशुभ वचन से निवृत्ति और शुभ वचन में प्रवृत्ति 2. मौन व्रत की आराधना और 3. अध्यात्म योग के साधनभूत ध्यान से युक्त होता है।68 कायगुप्ति से साधक आस्रव का निरोध और संवर की प्राप्ति करता है। संवर की प्रवृत्ति से निम्न तीन लाभ होते हैं___1. अशुभ कायिक प्रवृत्तियों का निरोध 2. शुभ कायिक चेष्टाओं में प्रवृत्ति और 3. पापास्रवों का निरोध होता है।69 इस प्रकार मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति से कर्म निर्जरा होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शुभ योग को समाधारणा कहा गया है। समाधारणा का मूलार्थ समाधि है अथवा योग प्रवृत्ति को सम्यक प्रकार से नियोजित करना अर्थात स्थिर करना समाधारणा है। योग तीन है अत: समाधारणा (समाधि) भी तीन प्रकार की होती है। उनकी फलश्रतियाँ निम्न हैं सम्यक मनन, चिन्तन और समाधि भाव में स्थिर रहना मन समाधारणा है। मन समाधारणा से 1. चित्त की एकाग्रता 2. वस्तु स्वरूप का तात्त्विक बोध 3. सम्यकदर्शन की विशुद्धि और 4. मिथ्यात्व का क्षय होता है।70 वाणी को सतत स्वाध्याय में संलग्न रखना वचन समाधारणा है। वचन समाधारणा से 1. वाणी के विषय भूत दर्शन पर्यवों की विशुद्धि 2. सुलभबोधि की प्राप्ति और 3. दुर्लभबोधि की निर्जरा होती है।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy