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180... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण सूत्रों का अध्ययन कभी भी किया या करवाया जा सकता है।
प्रश्नव्याकरण सूत्र में उपलब्ध आश्रव-संवर का वर्णन गणधर रचित नहीं है किन्तु बाद में संकलित किया गया है। व्यवहारसूत्र में उल्लेखित आगमों के नाम योगोद्वहन के क्रम से इस प्रकार हैं- 1-2. आचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र 3. सूत्रकृतांगसूत्र 4, 5, 6. दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र 7-8. स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र 9. भगवतीसूत्र 10-14. क्षुल्लिका विमान प्रविभक्ति, महल्लिका विमान प्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्ग चूलिका, व्याख्या चूलिका 15-20. अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात 21-24. उत्थान श्रुत, समुत्थान श्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका, नागपरियापनिका 25. स्वप्न भावना अध्ययन 26. चारण भावना अध्ययन 27. तेजनिसर्ग अध्ययन 28. आशीविष भावना अध्ययन 29. दृष्टिविष भावना अध्ययन और 30. दृष्टिवाद अंग।
आचार्य मधुकरमुनि के निर्देशानुसार सूत्रांक 10 से 29 तक के आगम दृष्टिवाद नामक अंग के ही अध्ययन थे अथवा उससे पृथक् निर्दृढ़ किए गए सूत्र थे। इन सभी का नाम नंदीसूत्र में कालिकश्रुत की सूची में दिया गया है। इन सूत्रों के अंत में यह भी बताया गया है कि बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय तक सम्पूर्ण श्रुत का अध्ययन कर लेना चाहिए। तदनुसार वर्तमान में भी योग्य मुनि को उपलब्ध सभी आगमश्रुत का अध्ययन बीस वर्ष में पूर्ण कर लेना चाहिए। उसके बाद प्रवचन प्रभावना करनी चाहिए अथवा स्वाध्याय आदि में निमग्न रहते हुए आत्मसाधना करनी चाहिए।56
दीक्षा वय के अनुसार आगमों के अध्ययन का जो क्रम बतलाया गया है उसमें मुख्य हेतु यह भी है कि ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती है पारिणामिकी बद्धि विकसित होती है त्यों-त्यों दीक्षा पर्याय के बढ़ने से आत्मिक शुद्धि भी प्रगट होती है यह अनुभवसिद्ध कथन है। कहने का तात्पर्य यह है कि निर्दिष्ट दीक्षा पर्याय पूर्ण होते-होते उन-उन सूत्रों को पढ़ने (आत्मसात करने) की शक्ति प्रगट हो जाती है। यह शक्ति प्रकट हुए बिना गृहीत ज्ञान स्थिर नहीं रह सकता है। वह राग-द्वेष मोहादि का नाशक नहीं होता है अपितु अजीर्ण रूप होने से अभिमान का निमित्त एवं शत्रुओं का पोषक बनता है। वस्तुत: वही सम्यक अध्ययन है जिसके द्वारा राग-द्वेष आदि शत्रु मंद, शिथिल एवं नष्ट हो। इस तथ्य को अन्य