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योगोद्वहन : एक विमर्श ...165 नष्ट दन्त विधि
यदि किसी योगवाही का दाँत टूटकर कहीं गिर जाये और खोजने पर पुनः प्राप्त हो जाये तो उसे वसति (उपाश्रय) से सौ कदम की दूरी पर परिष्ठापित कर देना चाहिए। यदि खोया दांत प्राप्त न हो तो वह योगवाही एक खमासमणसूत्र से वन्दन कर कहे- 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन! नट्ठदंत ओहडावणी काउस्सग्ग करूं? इच्छं' कहकर पुनः नट्ठदंत ओहडावणी करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थसूत्र बोलकर नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में एक नमस्कारमन्त्र बोलें।
नष्टदंत के दिन उक्त विधि करने पर ही कालग्रहण शुद्ध होता है। आगमसूत्रों की उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा कब करें?
प्राचीन काल में गुरु के मुखारविन्द से अध्ययन किया जाता था। शास्त्र लिखे नहीं जाते थे। उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। इस परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखने के उद्देश्य से गुरुगम पूर्वक अध्ययन पद्धति का सूत्रपात हुआ। उसका प्रतिपादन उद्देश (पढ़ने की आज्ञा) समुद्देश (पठित ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश), अनुज्ञा (अध्यापन की आज्ञा) और अनुयोग (व्याख्या)- इन चार पदों द्वारा किया गया। जैसे कि विद्यार्थी शिष्य सबसे पहले गुरु की आज्ञा प्राप्त करता है, फिर वह परिवर्तना के द्वारा पढ़े हुए ज्ञान को स्थिर रखने का अभ्यास करता है, तीसरे चरण में उसे अध्यापन की अनुमति प्राप्त होती है और चौथे चरण में उसे व्याख्या करने की स्वीकृति मिलती है।43
• जिस कालिकश्रुत का उद्दिष्ट दिन की प्रथम पौरुषी में हो चुका है वह आगम प्रथम एवं अन्तिम पौरुषी में पढ़ा जा सकता है।
• जिस उत्कालिक श्रुत का उद्दिष्ट हो चुका है वह व्यतिकृष्ट काल में भी पढ़ा जा सकता है, किन्तु संध्या और अस्वाध्यायकाल में उसका पठन वर्जित है।
• स्तव, स्तुति और धर्माख्यान संध्या वेला में भी पढ़े जा सकते हैं।
• जब भी अध्ययन या उद्देशक का पाठ ग्रहण करते हैं तभी उसका समुद्देश किया जाता है। अंग अथवा श्रुतस्कन्ध की अनुज्ञा दिन की प्रथम पौरुषी में की जाती है।