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164... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
अन्यथा नहीं। संध्या के समय एवं अर्द्ध रात्रि के समय मुनियों के उपाश्रय में साध्वियों का गमन निषिद्ध होने से साध्वियों के लिए उक्त दो काल
वर्जित माने गये हैं। 191. नियमतः एक दिन में एक काल का ही ग्रहण करना चाहिए, किन्तु कुछ
योगवाही कालग्रहण संख्या की परिपूर्ति हेतु या परिस्थिति विशेष में एक दिन में दो, तीन या चार काल का ग्रहण भी कर सकते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कुछ आगम सूत्रों के लिए अमुक काल एवं अमुक संख्या
में ही कालग्रहण का नियम है। 192. एक काल का शुद्ध रूप से ग्रहण कर लेने पर सामान्यतया दो बार
स्वाध्याय प्रस्थापन करना चाहिए। प्रत्येक कालग्रहण में दो बार पाटली की स्थापना एवं दो बार स्वाध्याय प्रस्थापना होती है। इसमें पहले पाटली स्थापना फिर स्वाध्याय प्रस्थापना, फिर दूसरी पाटली स्थापना और दूसरी स्वाध्याय प्रस्थापना इस क्रम से पाटली एवं स्वाध्याय प्रस्थापना की विधि
करते हैं। कालिक सूत्रों के योग में ही पाटली विधि होती है। 193. स्वाध्याय प्रस्थापन करते समय एक दंडी और पाटली स्थापना करते
समय दो दंडी की आवश्यकता रहती है। 194. पाटली क्रिया उत्कटासन मुद्रा (द्वादशावर्त्तवन्दन मुद्रा) में करनी चाहिए। 195. योगोद्वहन के दिनों में प्रतिदिन तीन या चार बार वसति शोधन करना
चाहिए। जैसे- कालग्रहण लेने से पूर्व, स्वाध्याय प्रस्थापन करने से पूर्व, काल प्रवेदन करने से पूर्व और संघट्टा-आउत्तवाणय ग्रहण करने से पूर्व
वसति शुद्धि अपरिहार्य है। 196. जिस दिन काल ग्रहण नहीं करना हो अथवा उद्देशादि पूर्ण हो गये हों
और शेष बचे हुए दिनों को पूर्ण करना हो तो उस दिन केवल प्रवेदन
विधि करते हैं। 197. योगोद्वहन काल में सिला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिए, क्योंकि सिली
हुई वस्त्र की किनार में एवं सांधे हुए वस्त्र में सूक्ष्म जीवोत्पत्ति शक्य है,
अतएव सिला हुआ वस्त्र धारण करने का निषेध है। 198. आगाढ़ एवं आउत्तवाणय विधियुक्त सूत्रों के योग में कठोर (दलहन धान
अखण्ड) धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए।