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योगोवहन : एक विमर्श ... 163
क्रिया करें, फिर पुनः दो बार स्वाध्याय प्रस्थापना करके दो बार पाटली की क्रिया करनी चाहिए।
183. रात्रिकाल में पवेयणा एवं संघट्टा आदि की विधि नहीं होती है। 184. सामान्यतया भगवतीसूत्र को छोड़कर शेष सभी सूत्रों में जितने दिन योग के होते हैं उतने ही कालग्रहण के होते हैं। कदाचित एकाधिक कालग्रहण लेकर दिन पूर्ण होने से पहले ही उन्हें पूरे कर दिए जाएं, तब भी उतने दिन योग सम्बन्धी अनुष्ठान सम्पन्न करना जरूरी होता है । अंग सूत्र • और श्रुतस्कन्ध के समुद्देश एवं अनुज्ञा के दो कालग्रहण अवशेष रखने चाहिए। इन्हें दिन के साथ ही पूरे किये जाते हैं। जैसे उत्तराध्ययनसूत्र के 28 कालग्रहण हैं, उन्हें प्रतिदिन चार-चार की संख्या में ग्रहण किए जाएं तो 26 कालग्रहण पहले पूरे कर सकते हैं परन्तु दो कालग्रहण समुद्देश एवं अनुज्ञा के दिन करना चाहिए।
185. प्रतिदिन एक कालग्रहण लेना उत्सर्ग मार्ग है तथा एक से अधिक ग्रहण करना अपवाद मार्ग है।
186. निशीथसूत्र में नंदी क्रिया नहीं होती है अतः इस सूत्र योग में सन्ध्या को भी प्रवेश किया जा सकता है, परन्तु शेष सभी सूत्रों का प्रवेश प्राभातिक कालग्रहण के समय ही होता है। वर्तमान की तपागच्छ परम्परा में सभी योग + उपधान में प्रवेश एवं निक्षेप केवल पहली पौरुषी में ही हो सकता है।
187. योगोद्वहन काल में अष्टमी, चतुर्दशी व शुक्ला पंचमी के दिन नीवि - तप आ रहा हो तो आयंबिल करना चाहिए।
188. खरतरगच्छ की सामाचारी के अनुसार महानिशीथ, उपांगसूत्र एवं समवायांग- इन तीन सूत्रों के योग आयंबिल पूर्वक वहन किए जाते हैं, किन्तु तपागच्छ की सामाचारी के अनुसार नन्दीसूत्र का योग भी आयंबिल पूर्वक ही होता है।
190. साधु एक दिन में चार एवं साध्वी दो कालग्रहण ले सकती हैं। वस्तुतः कालग्रहण का अधिकार मुनियों को ही है, साध्वियों को नहीं। कालग्रहण के समय साध्वियों की उपस्थिति अनिवार्य है। वे 'सुझइ' शब्द बोलती हैं, तभी मुनियों द्वारा गृहीत कालग्रहण उनके लिए भी मान्य होता है,