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162... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
पर (ऐसे स्थान तय है, जहाँ) गुरु आदेश देते समय 'तिविहेण' बोलते हैं। तब योगवाही शिष्य को उपयोग पूर्वक खमासमण देना होता है। इस विधि में खमासमण देने वाला योगवाही ‘इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए' इतना बोलकर अटक जाता है तब गुरु 'तिविहेण' बोलते हैं। उसके पश्चात शिष्य ‘मत्थएण वंदामि' कहकर
खमासमण पूर्ण करता है। 177. व्याघातिक एवं अर्द्धरात्रिक कालग्रहण रात्रि में 12 बजे से पूर्व लिए जाते
हैं तथा उसकी क्रिया भी रात्रि में की जाती है। वैरात्रिक एवं प्राभातिक
कालग्रहण प्रात: लिए जाते हैं तथा उसकी क्रिया उसी समय की जाती है। 178. कालिक सूत्रों के उद्देश-समुद्देश या अनुज्ञा क्रिया के पश्चात सामान्यत:
निम्न खमासमण दिये जाते हैं- वायणा संदिसाउं, वायणा लेशुं, कालमंडला संदिसाउं, कालमांडला पडिक्कमशुं, सज्झाय पडिक्कमशु,
पाभाईकाल पडिक्कमशुं आदि। 179. निवियाता का अर्थ है- दूध, दही, घी आदि विगई की शक्ति को नष्ट
किया गया द्रव्य, जैसे कि जला हआ घी आदि। 180. प्रचलित परम्परानुसार स्वाध्याय प्रस्थापना के समय एक दण्डी की
आवश्यकता रहती है जबकि पाटली क्रिया के समय दो दण्डी की
जरूरत होती है। 181. भगवती, महानिशीथ, प्रश्नव्याकरण आदि कुछ सूत्रों को छोड़कर अन्य
सूत्रों के योग में नीवियाता की सामग्री ग्रहण कर सकते हैं। इन दिनों पूर्ण विगय का त्याग नहीं होता है, किन्तु मूल विगय का सेवन भी नहीं किया जाता है। परिमित विगय की वस्तु ग्राह्य होती है। उसमें भी कई तरह के मिष्ठान्न आदि उस दिन के निर्मित भी अभक्ष्य माने जाते हैं और दूसरे दिन वे ही ग्राह्य हो जाते हैं। कुछ पदार्थ उस दिन ग्राह्य रहते हैं और दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाते हैं जैसे- मातर (घी, गुड़ एवं आटे से बना एक पदार्थ) दूसरे दिन ग्राह्य होती है और ठोर (घी, शक्कर एवं मैदा से
निर्मित मिष्ठ पदार्थ) उस दिन के ही शुद्ध होते हैं। 182. यदि दो कालग्रहण लिए जाएं, तो पहले दो स्वाध्याय प्रस्थापना विधि भी
एक साथ करें, फिर एक बार स्वाध्याय प्रस्थापना करके तीन बार पाटली