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150... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण 80. काल प्रवेदन करते समय किसी योगवाही को छींक आ जाये या सुनाई
पड़ जाये तो कालग्रहण नष्ट हो जाता है, उस दिन प्रवेदन क्रिया होती है। 81. पात्रादि का संघट्टा लेते समय तत्सम्बन्धी बोल बोलते हुए योगवाही के
हाथ में से कोई उपकरण आदि गिर जाये या बोल का पुनरावर्तन हो जाये या एकाध बोल विस्मृत हो जाये या दंडी स्थापन करते समय छींक आदि सुनाई पड़ जाये या स्वयं योगवाही को छींक आ जाये तो दुबारा संघट्ट
क्रिया करनी चाहिए। 82. संघट्टा लेने के बाद रजोहरण या मुखवस्त्रिका शरीर से स्पर्शित होते हुए
गिरे तो संघट्टा नष्ट नहीं होता है, यदि शरीर से अस्पर्शित होकर गिरे तो
संघट्टा अमान्य हो जाता है। 83. योगोद्वहन काल में दो पात्रों के ऊपर तीसरा, चौथा आदि पात्र नहीं रखने
चाहिए क्योंकि दो से ऊपर के पात्रों का संघट्टा नष्ट हो जाता है यानी उन पात्रों में रही आहार आदि सामग्री योगवाही के लिए अग्राह्य हो जाती है,
नीचे के दो पात्र ही संघट्टे में रहते हैं। 84. कालिक सूत्रों के योगकाल में एक पात्र में से दूसरे पात्र में आहारादि
प्रदान करते हुए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दोनों पात्र एक दूसरे से स्पर्शित रहे, यदि पृथक-पृथक (अस्पर्शित) रहें तो एक मुनि दूसरे मुनि को आहारादि न दें, क्योंकि पृथक स्थिति में आहारादि नीचे गिरने
की सम्भावना रहती है। 85. योगोद्वाही के किसी अंग पर फोड़ा, फुन्सी हो जाये और उसमें से पीप
या रक्तादि निकले तो वसति अशुद्ध कही जाती है। 86. आगाढ़ योग में से अनागाढ़ योग में प्रवेश करना हो, तो निर्गमन एवं
प्रवेश की क्रिया एक ही दिन में कर सकते हैं। 87. एक सूत्र का योग पूर्णकर दूसरेसूत्र के योग में प्रवेश करना हो, तो पूर्व
दिन आयंबिल आदि तप करने का नियम नहीं है, नीवि तप हो तो भी दूसरे दिन प्रवेश कर सकते हैं, किन्तु योग में से निकलना हो तो पूर्व
दिन आयंबिल करना आवश्यक है। 88. अनागाढ़ योग में से आगाढ़ योग में प्रवेश करना हो तो योग निक्षेप
(निर्गमन) की क्रिया करना आवश्यक नहीं है, परन्तु आगाढ़ योग में से