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योगोद्वहन : एक विमर्श ...147 स्थापनाचार्य को अनावृत्त रखना आवश्यक नहीं है, परन्तु उद्देशकादि अनुष्ठान, स्वाध्याय प्रस्थापना, पाटली स्थापना एवं प्रत्याख्यान पूर्ण
करते समय स्थापनाचार्य को खुल्ला रखना अनिवार्य है। 59. वर्षादि के कारण जिनदर्शन न कर सकें तो अठारह अभिषेक युक्त प्रतिमा
या फोटू के समक्ष चैत्यवंदन कर सकते हैं, इससे दिन नहीं गिरता है।परन्तु सन्ध्याकाल तक वर्षा रूक जाये तो अवश्य जिनालय जाकर
चैत्यवंदन करना चाहिए। 60. भिक्षाचर्या या स्थंडिल आदि के लिए गमन करते समय योगवाही के साथ
दो से अधिक आचारिक मुनि हों तो वसति से 100 कदम बाहर तक तिर्यञ्च या मनुष्य का व्यवधान मान्य नहीं होता है। 100 कदम के भीतर एक आचारिक साथ में हो तब भी मनुष्यादि का व्यवधान नहीं माना जाता है। यहाँ आड़ या व्यवधान से तात्पर्य-योगवाही और सहवर्ती मुनि दोनों के बीच में से मनुष्य आदि का निकलना है। यदि योगवाही के साथ अन्य मुनि न हों और उन दोनों के बीच में से पशु या मनुष्यादि निकल जाये तो गृहीत भिक्षा योगवाही के लिए अकल्पनीय हो जाती है तथा गृहीत संघट्टा भी चला जाता है। यहाँ पन्यास को दो आचारिक और
आचार्य को तीन आचारिक के सदृश माना गया है। 61. अस्वाध्याय काल में नोंतरा विधि नहीं होती है। 62. उपवास करने वाला योगवाही पन्द्रह दिन और उपवास न करने वाला
योगवाही एक महीने के पश्चात ‘पाली पलटुं' (तप क्रम की परिवर्तन)
विधि कर सकता है। 63. योगवाही को सूर्योदय होने से पूर्व दीर्घ शंका का निवारण करना हो तो
चूने का पानी, इसके सिवाय दवाई, दाँत, साफ करने की सली आदि
महानिशीथ कृत योगी से लेने की प्रवृत्ति है। 64. कालिकसूत्र के योग में प्रवेश करने के दिन कालग्रहण शुद्ध होना
आवश्यक है, अन्यथा नये सूत्र में प्रवेश नहीं हो सकता है। परन्तु प्रवेश करने के पश्चात किसी कारणवश बीच में से बाहर निकलना पड़े और पुन: उसी सूत्र में प्रवेश करना हो तो कालग्रहण लेना जरूरी नहीं है।