SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोद्वहन : एक विमर्श ... 145 प्रवर्त्तमान हो तो प्रथम प्रहर में प्रवेदन विधि ही कर सकते हैं, इससे दिन निरस्त नहीं होता है, किन्तु कालग्रहण नष्ट हो जाता है। 40. सूत्र योग करने वाले और सूत्रयोग की क्रिया करवाने वाले दोनों को उभय सन्ध्याओं में रजोहरण की प्रतिलेखना करनी चाहिए। 41. योगवाही सन्ध्याकालीन प्रतिलेखना करते समय पाणाहार (आहार- पानी ) आदि के प्रत्याख्यान करने से पूर्व द्वादशावर्त्तवन्दन नहीं करे, केवल एक खमासमणसूत्र द्वारा वन्दन करके अनुमति पूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करें। 42. क्रियाकारक साधु प्रातः काल में धम्मोमंगल आदि गाथाओं का स्वाध्याय करने के पश्चात और सन्ध्याकाल में स्थंडिल के चौबीस मांडला करने से पूर्व योगोद्वहन की क्रिया करवा सकते हैं। 43. योग प्रवेश के दिन, नन्दी के दिन, अंग सूत्रों या उनके श्रुतस्कन्धों के समुद्देश और उनकी अनुज्ञा के दिनों में आयंबिल करना चाहिए। 44. व्याघातिक कालग्रहण ( सन्ध्याकालीन) अथवा अर्द्धरात्रिक कालग्रहण के पश्चात दीर्घ शंका का निवारण कर लें तो दो दिन गिरते हैं, किन्तु कालग्रहण बना रहता है। यदि अंग सूत्रों या उनके श्रुतस्कन्धों के समुद्देश एवं अनुज्ञा के दिन से पूर्व की रात्रि में दीर्घ शंका का निवारण करें तो उस योगवाही का कालग्रहण नष्ट हो जाता है अर्थात उस योगवाही के द्वारा दूसरे दिन समुद्देश या अनुज्ञा का अनुष्ठान नहीं किया जा सकता है। 45. प्रभातकालीन क्रिया करने के पश्चात साध्वी को मासिक धर्म आ जाये अथवा वर्षा आदि के कारण अस्वाध्याय हो जाये तो उस स्थिति में सन्ध्याकालीन अनुष्ठान सम्पन्न कर लेने पर वह दिन गिरता नहीं है। 46. कालग्रहण, स्वाध्याय प्रस्थापन अथवा पाटली आदि की क्रिया करने के पश्चात और जिनालय जाने से पूर्व ऐसी अंतराय आ जाये तो दिन गिरता है, परन्तु कालग्रहण रहता है। 47. परम्परागत मान्यता के अनुसार शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया एवं तृतीया तथा प्रवचनसारोद्धार के मत से द्वितीया, तृतीया एवं चतुर्थी की सन्ध्या को व्याघातिक काल ग्रहण नहीं करना चाहिए, इनमें किसी तिथि का क्षय हो तो अमावस्या की सन्ध्या को भी व्याघातिक कालग्रहण नहीं करना चाहिए और दिन वृद्धि हो तो चार दिन का स्पर्श करते हुए लें।
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy