SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोद्वहन : एक विमर्श ... 143 काल में गणि द्वारा दिए गए आदेश ही मान्य होते हैं, अन्य मुनियों द्वारा दिये गये निर्देश स्वीकार नहीं होते हैं। 30. योगोद्वहन काल में नन्दी - अनुयोगद्वार के योग किये हुए मुनि के द्वारा करवाई गई देववंदन की क्रिया शुद्ध होती है, जबकि उपधान तप के विषय में ऐसा नियम नहीं है । 31. व्याघातिक और अर्द्धरात्रिक काल ग्रहण लेने के तुरन्त बाद अनुष्ठान कर्त्ता एवं अनुष्ठान प्रवर्त्तक दोनों को स्वाध्याय प्रस्थापना करनी चाहिए। उसके पश्चात अनुष्ठान की क्रिया और उसके तुरन्त बाद एक पाटली, एक सज्झाय एवं पुनः एक पाटली करनी चाहिए। 32. वैरात्रिक और प्राभातिक काल सम्बन्धी अनुष्ठान - प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन एवं काल प्रवेदन करने के पश्चात किया जाता है। अनुष्ठान कराने वाले मुनियों को एक स्वाध्याय प्रस्थापना करनी चाहिए। अनुष्ठान करने वाले योगवाही को एक काल ग्रहण सम्बन्धी एक और दो कालग्रहण सम्बन्धी दो स्वाध्याय प्रस्थापना करनी चाहिए। अनुष्ठान कर्त्ता एवं अनुष्ठान प्रवर्तक दोनों को प्राभातिक काल की स्वाध्याय प्रस्थापना में 'स्वाध्याय पठाउं, जाव सुद्ध' ऐसा पाठ बोलना चाहिए, उसके बाद सूत्रादि का अनुष्ठान करना चाहिए। तदनन्तर क्रमशः वैरात्रिक काल सम्बन्धी पाटली, स्वाध्याय प्रस्थापन और पुनः पाटली क्रिया करनी चाहिए। उसके पश्चात प्राभातिक काल ग्रहण की पाटली, स्वाध्याय प्रस्थापना और पाटली की क्रिया करनी चाहिए। पुनः 33. स्वाध्याय प्रस्थापन या पाटली स्थापन करते समय छींक आदि आ जाये तो उक्त क्रियाएँ विफल हो जाती हैं। इसके बावजूद भी नौ बार तक स्वाध्याय प्रस्थापना आदि का अनुष्ठान किया जा सकता है। नौंवी बार भी किन्हीं कारणों से पूर्वोक्त क्रियाएँ सम्यक रूप से सम्पन्न न हों तो गृहीत काल ग्रहण भी नष्ट हो जाता है। 34. अनुष्ठान कराने वाले आचार्य आदि की स्वाध्याय प्रस्थापन क्रिया बीच में खंडित हो जाये तो वे दूसरी बार स्वाध्याय प्रस्थापन क्रिया नहीं कर सकते हैं तथा उस दिन अन्य योगवाहियों को भी स्वाध्याय प्रस्थापना आदि अनुष्ठान नहीं करवा सकतें हैं । कदाचित अनुष्ठान कराने वाला
SR No.006245
Book TitleAgam Adhyayan Ki Maulik Vidhi Ka Shastriya Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy