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योगोद्वहन : एक विमर्श ...139 योगोद्वहन चर्या सम्बन्धी आवश्यक सूचनाएँ
जैन उपासना पद्धति में तीन योगों की एकाग्रतापूर्वक एवं विशिष्ट तप की साधना पूर्वक आगम सूत्रों का जो अध्ययन किया जाता है वह योगोद्वहन कहलाता है। सम्यक ज्ञानार्जन की यह आराधना उत्कृष्ट कोटि की है अत: इसमें कुछ सावधानियाँ अपेक्षित हैं जो परवर्ती ग्रन्थों के अनुसार निम्न प्रकार है-36 1. एक बार प्रतिलेखित पाटली (मुखवस्त्रिका एवं दंडीयुक्त लकड़ी का छोटा
पट्टा) के समक्ष सभी काल ग्रहण किये जा सकते हैं। पाटली की बार-बार प्रतिलेखना करना आवश्यक नहीं है। मात्र प्रवेदन के अनन्तर जब पुनः स्वाध्याय प्रस्थापना करते हैं तब पाटली की फिर से प्रतिलेखना करनी
चाहिए। 2. कदाचित कालिक सूत्रों के योग में संघट्टे ग्रहण करना शेष रह जायें तो भगवतीसूत्र के योगोद्वहन के मध्य में उन संघट्टों को ग्रहण कर सकते हैं। आउत्तवाणय अर्थात विशेष रूप से उपयोगवान होकर कालिक सूत्र के योग करते हुए जितने दिन अधिक लगते हैं उतने दिन भगवतीसूत्र के
योग में परिगणित नहीं होते हैं। 4. वर्षाऋतु में पाटली के समक्ष काल ग्रहण लेना चाहिए शेष काल में
कम्बली के ऊपर दंडी रखकर भी काल ग्रहण कर सकते हैं। परम्परागत सामाचारी के अनुसार यदि दंडी उपलब्ध न हो तो पेन्सिल या स्थापनाचार्य की दण्डी उपयोग में ले सकते हैं। योगवाही का लम्बे दण्डे
वाला रजोहरण (दंडासन) मयूरपिच्छ का होना चाहिए। 5. यदि दो काल एक साथ ग्रहण किये हों, तो उसके अनन्तर दो बार
स्वाध्याय प्रस्थापना करके काल ग्रहण सम्बन्धी दोनों अनुष्ठान करें, अन्यथा एक काल रहता है और दूसरा काल निष्फल हो जाता है क्योंकि काल ग्रहण स्वाध्याय के निमित्त होता है। यदि स्वाध्याय की प्रस्थापना न करें तो काल ग्रहण का क्या अर्थ? स्वाध्याय न करने पर काल ग्रहण निरर्थक हो जाता है। 6. योगोद्वहन काल में गुरु को अप्रतिलेखित रजोहरण से वन्दन नहीं करना
चाहिए, क्योंकि वह वन्दन शुद्ध नहीं होता है। अप्रतिलेखित रजोहरण से