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योगोद्वहन : एक विमर्श ... 125
निष्पत्ति
यदि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से आगाढ़ - अनागाढ़ श्रुत का आधार ढूंढा जाए तो सर्वप्रथम इसका उल्लेख निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में उपधान के रूप में उपलब्ध होता है। जैसा कि निशीथ भाष्य में कहा गया है - जो दुर्गति में गिरने से बचाये वह उपधान (श्रुत अध्ययनकाल में करणीय तप) है। कालिकउत्कालिक, अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य सूत्रों के उद्देशक, अध्ययन या श्रुतस्कन्ध के लिए आयंबिल आदि जो उपधान रूप तप करणीय हैं, वे करना चाहिए। 11 श्रुत के दो प्रकार हैं- आगाढ़ श्रुत और अनागाढ़ श्रुत। भगवती आदि आगम आगाढ़ श्रुत हैं तथा आचारांग आदि अनागाढ़ श्रुत हैं। आगाढ़ के लिए आगाढ़ और अनागाढ़ के लिए अनागाढ़ उपधान (तप) करणीय है। जो आगाढ़ और अनागाढ़ में विपर्यास करता है, वह क्रमशः चतुर्गुरू और चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
इस सन्दर्भ में अशकटपिता का दृष्टान्त वर्णित है - एक आचार्य ने वाचनादान से विमुख होकर स्वाध्याय काल को अस्वाध्याय काल घोषित कर दिया। इससे उनके ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हो गया। वे मृत्यु के पश्चात देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर वे आभीर कुल में उत्पन्न हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर विवाह हुआ और एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अत्यन्त रूपवती थी। एक दिन पिता और पुत्री घी बेचने जा रहे थे। पुत्री शकट के अग्रभाग पर बैठी थी। कुछ युवा लोग भी अपनी गाड़ियाँ लेकर उसी मार्ग से जा रहे थे। वे उस कन्या के रूप को देखने के लिए अपनी गाड़ियों को उन्मार्ग में गए तो d टूट गई। इस कारण से पिता ने लड़की का नाम अशकट रख दिया। साथ ही उसका पिता भी अशकट पिता के नाम से प्रसिद्ध हो गया। किसी . घटना विशेष से अशकट पिता के नाम से प्रसिद्ध हो गये और पुत्री का विवाह कर दीक्षित बन गए। फिर उन्होंने आगमसूत्रों का अभ्यास प्रारम्भ किया। जब उत्तराध्ययन का क्रम आया तब उसके तीन अध्ययन तो सीख लिए, किन्तु चौथा अध्ययन (असंखयं) सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म का उदय हो गया। प्रयत्न करने पर भी अध्ययन याद नहीं हुआ। मुनि ने आचार्य से निवेदन किया कि इसके लिए कौन सा योग वहन करूँ ? आचार्य ने कहा- जब तक याद न हो, तब तक आयंबिल तप करो। उन्होंने उसी रूप में आयंबिल (उपधान) किये। बारह वर्ष तक आयंबिल करते हुए वे मात्र बारह श्लोक याद